प्रारम्भिक पुराणों का तिथि निर्धारण

प्रारम्भिक पुराणों का तिथि निर्धारण

प्राचीन भारतीय साहित्य में पुराणों का अपना एक उत्कृष्ट स्थान है। पुराण भारतीय सभ्यता एवं संस्कृति के मेरूदण्ड हैं। प्राचीन भारतीय ग्रन्थों में पुराणों को वेदों से भी ऊँचा स्थान दिया गया है। मत्स्य पुराण में इसकी महत्ता प्रदर्शित करते हुए बताया गया है कि, ‘‘सभी शास्त्रों में पुराणों की उत्पत्ति सर्वप्रथम हुई इसके पश्चात ही ब्रह्मा के मुख से वेदों की उत्पत्ति हुई।’’1 यह इस बात का स्पष्ट प्रमाण है कि प्राचीन काल में वेदों के समान ही पुराण लोकप्रिय होने के साथ-साथ ज्ञान के प्रमुख स्रोत भी थे।
पुराण शब्द का प्रयोग ऋग्वेद में अनेक बार हुआ है, यहाँ उसका अर्थ है ‘‘प्राचीनता या पूर्वकाल में होने वाला’’2 वायु पुराण के अनुसार पुराण का अर्थ है- ‘‘पुराअनति अर्थात् प्राचीन काल में जो जीवित था।’’ पुराण की परिभाषा पद्म पुराण में इससे थोड़ी भिन्न दी गई है। इसके अनुसार ‘‘जो प्राचीनता की अर्थात् परम्परा की कामना करता है, वही पुराण है।’’ ब्रह्माण्ड पुराण में इससे भिन्न एक तृतीय उत्पत्ति है, ‘‘पुरा एतद् अभूत’’ अर्थात्
‘‘प्राचीन काल में ऐसा हुआ’’3 इन समग्र व्युत्पत्तियों की मीमांसा करने से स्पष्ट है कि पुराण का वर्ण्य विषय प्राचीन काल से है।
‘‘सर्गश्च प्रतिसर्गश्च वंशो मन्वन्तराणि च। वंशानुचरितं चैव पुराणं पंच लक्षणम्।।’’

पुराणों के लक्षणों को बताने वाला यह श्लोक कुछ पुराणों को छोड़कर प्रायः सभी महापुराणों में मिलता है। सृष्टि, प्रलयं, वंशपरम्परा, मन्वन्तर का वर्णन और विशिष्ट व्यक्तियों का चरित्र, ये पाँच विषय जिस ग्रन्थ में वर्णित हो उसे पुराण कहते हैं। ये 5 विषय पुराणों में अनिवार्यतः प्रतिपादित हैं। पुराण के महत्व पर चर्चा करते हुए ‘‘वैदिक वाड्.मय में पुराण को पाँचवा वेद कहा गया।’’4 छान्दोग्य उपनिषद में ‘‘इतिहास, पुराण को पाँचवा

वेद की सज्ञा दी गयी है।’’5 ‘‘पुराणों की संख्या 18 बतायी गयी है।’’6 इन अष्टादश पुराणांे पुराण में अद्भुत प्रकार का सन्दर्भ प्राप्त होता है।
मद्वयं भद्वयं चैव ब्रत्रयंवचतुष्टयम्।
अनापि लिंगकूर्मानि, पुराणानि पृथक-पृथक।।

के सन्दर्भ में भागवत अर्थात् मकरादि दो- (मत्स्य, मार्कण्डेय) पुराण भकरादि दो- (भागवत, भविष्य) पुराण
व्र से तीन- (ब्रह्म, ब्रह्माण्ड, ब्रह्मवैवर्त) पुराण वकरादि चार- (वाराह, विष्णु, वायु, वामन) पुराण
अनापद- (अग्नि, लिंग, कूर्म, पदम, गरूण, कूर्म, स्कन्द) पुराण। संक्षेप में इन अष्टादश पुराणों के नाम निम्नलिखित हैं।
ब्रह्म पुराण ब्रह्मवैवर्त पुराण
पद्म पुराण लिंग पुराण
विष्णु पुराण वाराह पुराण
शिव पुराण स्कन्द पुराण
भागवत पुराण वामन पुराण
नारद पुराण कूर्म पुराण
मार्कण्डेय पुराण मत्स्य पुराण
अग्नि पुराण गरूण पुराण
भविष्य पुराण ब्रह्माण्ड पुराण

पुराण संहिता ग्रन्थ हैं इसलिए इसमें मानव जीवन से सम्बन्धित विभिन्न उपयोगी वस्तुओं का संकलन किया गया है। संकलन की इसी प्रवृत्ति के कारण जहाँ एक तरफ विभिन्न प्रकार की वस्तुओं का ज्ञान हमें प्राप्त होता है, वहीं दूसरी तरफ ऐतिहासिक दृष्टि से यह पता लगा पाना अत्यन्त जटिल हो गया है कि इन पुराणों के संकलन की वास्तविक तिथि क्या है? इन पुराणों की तिथियाँ इतनी उलझी हुई हैं कि इन्हें व्यवस्थित कर पाना आज भी विद्वानों के लिए एक प्रमुख समस्या बनी हुई है। पुराणों में उपलब्ध विभिन्न प्रसंगों का निबन्ध ग्रन्थों में प्रकाशित उद्धरणों के आधार पर डॉ0 आर0सी0 हजारा महोदय ने इसे निर्धारित करने का निरन्तर प्रयास किया।7 परन्तु जिस प्रकार की सामग्री का प्रयोग हजारा महोदय ने किया है, वह पुराणों के तिथि निर्धारण के लिए पर्याप्त नहीं है लेकिन इससे पुराणों की निचली सीमा का निर्धारण किया जा सकता है। हजारा से पहले भी कई विद्वानों ने पुराणों के काल निर्धारण का प्रयास किए जिसमें एफ0ई0 पार्जिटर, विल्सन, बलदेव उपाध्याय आदि प्रमुख हैं। आर0सी0 हजारा की पुस्तक के आधार पर पुराणों का सामान्य काल निर्धारण निम्नलिखित प्रकार से किया जा सकता है।
1. प्राचीन स्तर के पुराण: वायु पुराण, मत्स्य पुराण, मार्कण्डेय पुराण, ब्रह्माण्ड पुराण, भागवत पुराण, विष्णु पुराण, कूर्म पुराण।
2. परवर्ती/नवीन स्तर के पुराण: अग्नि पुराण, गरूण पुराण।
आर0सी0 हजारा के अनुसार इन प्राचीन स्तर के पुराणों में वायु पुराण, मत्स्य पुराण, मार्कण्डेय पुराण सबसे प्राचीन स्तर के हैं। इनमें प्राचीन सामग्री भिन्नता रखते हुए भी पर्याप्त मेल खाती है। आचार्य बलदेव उपाध्याय ने पुराणों की तीन श्रेणी बताई है।
1. प्राचीन पुराण: इसके अन्तर्गत वायु पुराण, मार्कण्डेय पुराण, ब्रह्माण्ड पुराण, मत्स्य पुराण तथा विष्णु पुराण को रखते हैं।
2. मध्यकालीन पुराण: इसके अन्तर्गत कूर्म पुराण, स्कन्द पुराण, पद्म पुराण को रखते हैं।
3. आधुनिक पुराण: इसके अन्तर्गत ब्रह्मवैवर्त, ब्रह्म तथा लिंग पुराण को रखते हैं।
उपर्युक्त पुराणों में प्राचीन स्तर के पुराणों का समय प्रथम शताब्दी से लेकर 400 ई0 तक जबकि मध्यवर्ती स्तर के पुराणों का समय 500 ई से 900 ई0 तक, ठीक इसी प्रकार आधुनिक स्तर के पुराणों का समय 900 ई0 से 1000 ई0 तक माना गया है। विवेचना की दृष्टि से इस अध्ययन में केवल उन्हीं पुराणों का तिथि निर्धारण किया जाएगा जो प्रारम्भिक स्तर के माने गए हैं। इन्हें हम निम्नलिखित प्रकार से प्रस्तुत कर सकते हैं।
वायु पुराण: इस पुराण में कुल 11,000 श्लोक हैं, यह 112 अध्याय तथा दो खण्ड में विभाजित है। इस पुराण को शैव पुराण भी कहा जाता है। इसमें खगोल तथा भूगोल, सृष्टि क्रम, युग, श्राद्ध पितरों, विविध राजवंश, विविध ऋषियों के वंश, विविध प्रकार के तीर्थ, संगीत शास्त्र, वेद की विभिन्न शाखाएँ, शिव भक्ति की महिमा, पर्वत द्वीप, नदी के साथ-साथ लंका, चन्द्र वंश एवं वरूण वंश के बारे में जानकारी मिलती है।
पुराणों में उपलब्ध तिथि के अनुसार ‘‘वायु पुराण प्राचीनतं प्रतीत होता है।’’8 इसका उल्लेख महाभारत में भी मिलता है। हरिवंश पुराण में इसे एक आधिकारिक ग्रन्थ बताया गया है। बाणभट्ट ने अपने ग्रन्थ हर्षचरित तथा कादम्बरी में भी इसका उल्लेख किया है। इसके अतिरिक्त अल्बेरूनी ने भी इस ग्रन्थ का उद्धरण स्पष्ट किया है। निःसन्देह कहा जा सकता है कि ‘‘गुप्त शासकों के समय तक वायु पुराण का प्रथम संस्करण प्रकाशित हो चुका था।’’9 क्योंकि इसका वंशानुचरित अंश गुप्त शासकों के आदिम राज्य के विस्तार के वर्णन के साथ ही समाप्त हो जाता है। इसमें गुप्त वंश के साम्राज्य की सीमा का जो विवरण प्राप्त होता है, वह समुद्रगुप्त के विस्तार के पूर्व कालीन प्रतीत होता है। समुद्रगुप्त का समय 330 ई0 से 375 ई0 तक माना जाता है। इस स्थिति में वायु पुराण के सम्पादन का अन्तिम समय 300 ई0 से 400 ई0 के बीच में नहीं रखा जा सकता है। चूकि वायु पुराण एक प्रमाणिक पुराण संरचना थी अतः इसके संस्करण तथा प्रति संस्करण की प्रक्रिया इस काल निर्धारण के बाद भी चलती रही। वायु पुराण के काल निर्धारण में आर0सी0 हजारा महोदय ने दो बातों पर बल दिया। प्रथम
ऐतिहासिक रूपरेखा जिसमें नन्द वंश से आन्ध्र वंश का वर्णन प्राप्त होता है जिसकी तिथि 200 ई0 के पहले तक मानी जा सकती है। द्वितीय मत्स्य पुराण के तत्सम उद्धरणों का इन पर आधारित होना, जिससे ऐसा लगता है कि इन अध्यायों का समावेश तीसरी शताब्दी ई0 के पूर्व हुआ होगा। सामान्यतः वायु पुराण की सीमा प्रथम-द्वितीय शताब्दी से लेकर चतुर्थ शताब्दी ई0 तक जाती है।
मत्स्य पुराण:-
मत्स्य पुराण में कुल 14,000 श्लोक तथा 295 अध्याय हैं। मत्स्य अवतार के रूप में विष्णु जी ने सप्त ऋषियों तथा वैवश्वत मनु को जो उपदेश दिए थे वे ही इस पुराण में अंकित हैं। इसमें व्रत, तीर्थ, दान, धर्म, जल प्रलय की कथा, तारकासुर के वध की कथा, नरसिंह अवतार की कथा, त्रिदेवों की महिमा, नवग्रह, सावित्री-सत्यवान की कथा के साथ-साथ काशी, प्रयाग तथा नर्मदा महात्म्य का भी वर्णन मिलता है।
कालक्रम और संरचना की दृष्टि से अभी तक उपलब्ध सभी पौराणिक वाड्मय में मत्स्य पुराण अपना अलग स्थान रखता है। इस पुराण की रचना किस विषय-क्षेत्र से सम्बन्धित है, यह एक महत्वपूर्ण परन्तु अत्यन्त जटिल समस्या है। एफ0ई0 पार्जिटर महोदय ने ‘‘मत्स्य पुराण का समय तीसरी शताब्दी का उत्तर चरण अथवा चौथी शताब्दी का प्रथम चरण स्वीकार किया है।’’10 आचार्य बलदेव उपाध्याय के मतानुसार कालिदास ने अपने नाटक विक्रमोर्वशीय की कथा वस्तु को मत्स्य पुराण से लिया है। यदि ‘‘कालिदास का समय गुप्त युग माना जाए तो ऐसी स्थिति में मत्स्य पुराण का आविर्भाव 200 ई0 से लेकर 400 ई0 के बीच माना जा सकता है।’’11 मार्कण्डेय पुराण:-
इस पुराण की रचना ऋषि मार्कण्डेय ने मानव कल्याण के लिए की है। इसमें कुल 9,000 श्लोक तथा 137 अध्याय हैं। यह दूसरे पुराणों की तुलना में छोटा है। इसमें देवी दुर्गा के चरित्र का सुन्दर वर्णन मिलता है। इसमें मनुष्य के भौतिक, सामाजिक, नैतिक तथा आध्यात्मिक कल्याण की भावना को भी व्यक्त किया गया है। प्रारम्भिक पुराणों में मार्कण्डेय पुराण का अपना विशिष्ट स्थान है, इसका मुख्य कारण यह है कि इस पुराण के 13 अध्यायों में देवी महात्म्य का वर्णन मिलता है। इसमें देवी के तीन रूप (महाकाली, महासरस्वती, महालक्ष्मी) का वर्णन विस्तृत रूप में किया गया है। ‘‘इसका मूल तृतीय-चतुर्थ शताब्दी तक पूर्ण हो चुका था।’’12 परन्तु इसमें वर्णित सामग्री का विश्लेषण करने से ऐसा लगता है कि इसमें कई शताब्दी तक परिवर्तन भी होता रहा।
ब्रह्माण्ड पुराण:-
इस पुराण में कुल 12,000 श्लोक हैं। ब्रह्मा जी ने ब्रह्माण्ड के महात्म्य को लेकर इस पुराण में उपदेश दिया है। ब्रह्माण्ड पुराण का तोनखण्ड पूर्व, मध्य तथा उत्तर भाग वैज्ञानिक दृष्टि से विशेष महत्व का है। इसे खगोलशास्त्रीय भी कहा जाता है। इसमें ब्रह्माण्ड के समस्त ग्रहों का विस्तार से वर्णन है। इसमें सृष्टि के जन्म परशुराम की कथा, चन्द्रवंशी तथा सूर्यवंशी राजाओं का भी वर्णन प्राप्त होता है।
समस्त 18 पुराणों की तालिका में इसे सबसे अन्तिम स्थान दिया गया। ऐसा प्रतीत होता है कि ‘‘प्रारम्भ में ब्रह्माण्ड पुराण एवं वायु पुराण विषय सामग्री की दृष्टि से एक ही रहे होंगे। परन्तु बाद में ये दोनों पृथक हो गए।
यह अलगाव 400 ई0 के बाद ही हुआ होगा।’’13 पार्जिटर महोदय के अनुसार ‘‘इस पुराण के अधिकांश अध्याय साहित्यिक दृष्टि से वायु पुराण के समान ही है।’’14 आर0सी0 हजारा महोदय ने वायु पुराण और ब्रह्माण्ड पुराण को एक ही माना है।14 डॉ0 क्रिफेल के मतानुसार भी ‘‘वायु पुराण तथा ब्रह्माण्ड पुराण मौलिक रूप से एक ही हैं।
यही कारण है कि दोनों के अधिकांश भाग एक दूसरे से मिलते हैं।’’15 इस प्रकार ब्रह्माण्ड पुराण भी वायु पुराण के समान ही चौथी शताब्दी में अपना अस्तित्व बनाए हुए था। इस पुराण का नाम ब्रह्माण्ड पुराण 2 कारण से पड़ा। ‘‘प्रथम मत के अनुसार इसमें भुवनकोश का वर्णन विस्तृत रूप से मिलता है तथा ब्रह्माण्ड का विवरण ही इसका प्रमुख उद्देश्य है जबकि द्वितीय मत के अनुसार मूल खण्ड के आविर्भाव के विवरण को प्रकाश में लाने के कारण ही इसका नाम ब्रह्माण्ड पुराण पड़ा।’’16
भागवत पुराण:-
इस पुराण में भगवान कृष्ण को केन्द्र में रखा गया है। इसमें 18,000 श्लोक तथा 12 स्कन्ध हैं। इसमें प्रेम, भक्ति, कौरव-पाण्डवों की कथा, द्वारिका, कृष्ण-यदुवंशियों, वृत्तासुर के वध की कथा का भी वर्णन मिलता है। इसमें माता गायत्री को केन्द्र में रखकर धर्म से सम्बन्धित विस्तृत उपदेश भी दिए गए हैं।
भागवत पुराण आधुनिक पुराणों में सर्वाधिक प्रसिद्ध है। इसके सम्बन्ध में विद्वानों का मानना है कि इसकी तिथि नौवी शताब्दी के पहले का नहीं है परन्तु यह मत उचित प्रतीत नहीं होता है। हाजरा महोदय के अनुसार संभवतः ‘‘इसकी रचना छठी शताब्दी के पूर्वार्द्ध में हो गई थी।’’17
विष्णु पुराण:-
यद्यपि की विष्णु पुराण का स्वरूप अन्य पुराण की तुलना में संगठित है तथापि इसमें संग्रहित सामग्री के आधार पर इसकी तिथि के विषय में पर्याप्त मतभेद है। पार्जिटर महोदय के अनुसार ‘‘विष्णु पुराण 5वीं शताब्दी से प्राचीन नहीं हो सकता है।’’18 इस पुराण में गुप्त साम्राज्य की सीमा का उल्लेख है, इसलिए ‘‘इसकी तिथि 100 ई0 से 300 ई0 तक मानना उचित प्रतीत होता है।’’19 हाजरा महोदय ने साक्ष्यों के आधार पर विष्णु पुराण की प्राचीनता सिद्ध करने का प्रयास किया है। उनका प्रथम तर्क यह है कि- ‘‘विष्णु पुराण में जो वैष्णव परक स्थल हैं वे कूर्म पुराण के वैष्णव स्थलों की अपेक्षा अधिक प्राचीन है। विष्णु पुराण के वैष्णव परक स्थल शाक्त तत्वों से
युक्त है।’’20 जबकि कूर्म पुराण में केवल कुछ ही जगह शाक्त तत्व दिखलाई पड़ते हैं जिन्हें अपवाद स्वरूप ही माना जा सकता है।
इस प्रकार विष्णु पुराण कूर्म पुराण का पूर्ववर्ती ग्रन्थ है। यदि कूर्म पुराण की तिथि 550 ई0-600 ई0 के बीच का माना जाए तो विष्णु पुराण को 7वीं शताब्दी के पहले की रचना मानना अधिक तर्कसंगत लगता है। द्वितीय तर्क में उन्होंने भागवत पुराण में आई कथाओं की विष्णु पुराण में कही गई कथाओं से तुलना की है। उन्होंने विष्णु पुराण में वर्णित कुछ कथाओं का उदाहरण भी दिया है जिनका भागवत पुराण में अति विस्तार दिखाई देता है। उनका मानना है कि विष्णु पुराण में कृष्ण, विष्णु के एक अंश के रूप में उल्लिखित हैं। जबकि भागवत पुराण में उन्हें स्वयं ही विष्णु घोषित कर दिया गया है। इन दोनों पुराणों की तुलनात्मक समीक्षा के आधार पर इनका निष्कर्ष है कि विष्णु पुराण, भागवत पुराण की अपेक्षा अधिक प्राचीन है। हाजरा महोदय ने
‘‘विष्णु पुराण को 7वीं शताब्दी से पहले की रचना माना है जबकि भागवत पुराण को 7वीं शताब्दी की रचना माना है।’’21
कूर्म पुराण:
कूर्म पुराण को 2 भागों में विभाजित किया गया है- 1. पूर्वार्द्ध- इसमें 53 अध्याय है, 2. उत्तरार्द्ध- इसमें 46 अध्याय है।
वर्तमान समय में यह पंचरात्र मत का प्रतिपादक पुराण है। इसमें बताया गया है कि ‘‘ईश्वर एक ही है, किन्तु उसने अपने को 2 रूपों में विभाजित किया है। 1. नारायण के रूप में, 2. ब्रह्मा, विष्णु या महेश रूप में।’’22 कूर्म पुराण के ‘‘वैष्णव परक स्थलों की रचना का काल 550 ई0-650 ई0 के बीच की अवधि माना गया
है।’’23 पाशुपत सम्प्रदाय का प्रधान होने के कारण यह पुराण छठी-सातवीं शताब्दी की रचना है। ‘‘इस समय पाशुपत मत उत्तर भारत में लोकप्रिय था।’’24
निष्कर्ष:-
इस प्रकार पुराणों की समयावधि तीसरी शताब्दी से लेकर आठवीं शताब्दी के बीच रखी जा सकती है। चूँकि पुराणों के भिन्न-भिन्न अंशों के लिए भिन्न-भिन्न तिथियाँ प्राप्त होती हैं। अतः संभव है कि पुराणों के कुछ अंशो की प्राचीनता इससे भी अधिक हो। यह भी संभव है कि इन पुराणों के आचार एवं धर्म सम्बन्धी प्रकरण इन्हीं काल में लोकप्रिय हुए हों। पुराणों के निचले स्तर के अंश कितने प्राचीन हैं? और कितने नवीन हैं? इसका पता लगा पाना अत्यधिक जटिल कार्य है। इसके अतिरिक्त पुराणों की प्रकृति में भी भिन्नता है इसलिए उन सभी में बहुधा एक प्रकार की सामग्री का संकलन नहीं हुआ है।
सन्दर्भ ग्रन्थ सूची
1. मत्स्य पुराण 3/3-4
2. ऋग्वेद 3/58/6, उद्धृत, लाल मीना, पुराणों में आर्थिक जीवन, पृ0 2
3. यस्यात् पुराभभूच्चैतत् पुराणं तेन तत स्मृतम्। ब्रह्माण्ड पुराण 1/1/173
4. पुराणं च पंचमो वेद उच्चयते। भागवत पुराण 1/4/20
5. छान्दोग्य उपनिषद 7/1/2
6. मत्स्य पुराण 3/6/21-24, 53/11-56 वायु पुराण 104/2-10
मार्कण्डेय पुराण 137/7-11, भागवत पुराण 12/13/4-8
7. हजारा, आर0सी0 स्टडीज इन दि पौराणिक रिकार्ड्स आन दि हिन्दू राइट्स एण्ड कस्टम्स, पृ0 10
8. वही, पृ0 13
9. वही, पृ0 15, उद्धृत अध्याय, उपाध्याय, बलदेव पुराण विमर्श, पृ0 545
10. वही, पृ0 31
11. उपाध्याय, बलदेव, पुराण विमर्श, पृ0 566
12. हाजरा, आर0सी0, स्टडीज इन दि पौराणिक रिकार्डस आन हिन्दू राइट्स एण्ड कस्टम्स, पृ0 10-11
13. वही, पृ0 18
14. पार्जिटर, एफ0ई0, ऐन्शिएण्ट इण्डियन हिस्टोरिकल ट्रेडिशन, पृ0 23, 77
15. डॉ0 क्रिफेल: डांसपुराण पंचलक्षम्, अंग्रेजी अनुवाद।
16. उपाध्याय, बलदेव, पुराण विमर्श, पृ0 544
17. हाजरा, आर0सी0, स्टडीज इन दि पौराणिक रिकार्ड्स ऑन हिन्दू राइट्स एण्ड कस्टम्स, पृ0 21-24
18. पार्जिटर, एफ0ई0 एन्शिएण्ट इण्डियन हिस्टोरिकल ट्रेडिशन, पृ0 80, उद्धृत, लाल मीना, पुराणों में आर्थिक जीवन, पृ0 544
19. उपाध्याय, बलदेव, पुराण विमर्श, पृ0 544
20. विष्णु पुराण 1/8, 15-32
21. हाजरा, आर0सी0, स्टडीज इन दि पौराणिक रिकार्ड्स आन हिन्दू राइट्स एण्ड कस्टम्स, पृ0 21-24
22. उपाध्याय, बलदेव, पुराण विमर्श, पृ0 562
23. हाजरा, आर0सी0, स्टडीज इन दि पौराणिक रिकार्ड्स आन हिन्दू राइट्स एण्ड कस्टम्स, पृ0 21-22
24. उपाध्याय, बलदेव, पुराण विमर्श, पृ0 563

See also  ITIHASA-PURANA TRADITION IN ANCIENT INDIA; TRADITIONAL HISTORY FROM THE VEDAS, EPICS AND PURANAS

 

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