Skip to content

अभिप्रेरणा (MOTIVATION)

अभिप्रेरणा (MOTIVATION)

अर्थ :- अभिप्रेरणा वह प्रेरक शक्ति है जो प्राणी को किसी कार्य को करने के लिए प्रेरित करती है। मनोविज्ञान में अभिप्रेरणा को हम एक काल्पनिक आंतरिक प्रक्रिया के रूप में परिभाषित करते हैं जो व्यवहार करने के लिए शक्ति प्रदान करता है तथा एक खास उद्देश्य की ओर व्यवहार को ले जाता है। अत: अभिप्रेरणा से तात्पर्य एक प्रेरक तथा कर्षण बल से होता है जो खास लक्ष्य की ओर व्यवहार को निरंतर ले जाता है।

  • अंग्रेजी के मोटीवेशन (MOTIVATION) शब्द की उत्पत्ति लैटिन भाषा के मोटम (MOTUM) से हुई है, जिसका अर्थ है- गति करना। धक्का देना (TO MOVE)

अभिप्रेरणा (MOTIVATION)

MOTUM (लैटिन भाषा)

To Move (गति करना/धक्का देना)

  • अभिप्रेरणा एक प्रकार से वह क्रिया है जो व्यक्ति को कार्य करने के लिए परिस्थितियाँ प्रदान करती है और व्यक्ति या प्राणी कार्य की दिशा में आगे बढ़ता है।

परिभाषाएँ :-
1. गुड एनएफ :- “किसी कार्य को आरम्भ करने, जारी रखने और नियमित बनाने की प्रक्रिया ही अभिप्रेरणा है।”

  1. स्कीनर:- “अभिप्रेरणा अधिगम का सर्वोच्च राजमार्ग/स्वर्ण पथ/हृदय है।”
  2. विलियममैक्डूगल :- “अभिप्रेरणा वे शारीरिक और मनोदैहिक दशाएँ होती हैं, जो हमें किसी कार्य को करने के लिए प्रेरित करती हैं।”
  3. क्रैच कैचफील्ड :- “अभिप्रेरणा हमारे ‘क्यों’ का उत्तर देती है।”
  4. ब्लेयरजोन्स सिम्पसन :- “प्रेरणा एक प्रक्रिया है, जिसमें सीखने वाले की आन्तरिक शक्तियाँ या आवश्यकताएँ उसके वातावरण में विभिन्न लक्ष्यों की ओर निर्देशित होती हैं।”
  5. लावेल:- “अभिप्रेरणा एक मनोवैज्ञानिक या आन्तरिक प्रेरणा है जो किसी आवश्यकता की उपस्थिति में उत्पन्न होती है और ऐसी क्रिया की ओर गतिशील होती है जो उस आवश्यकता को संतुष्ट करेगी।”
  6. वुडवर्थ:- “निष्पति = योग्यता (Ability) + अभिप्रेरणा (Motivation) अर्थात् योग्यता + अभिप्रेरणा से निष्पत्ति प्राप्त होती है और प्रेरणा से व्यक्ति की योग्यता का विकास होता है।”
  7. मेल्टन :-“अभिप्रेरणा सीखने की एक आवश्यक शर्त है।”

उपर्युक्त परिभाषाओं से स्पष्ट होता है कि कोई भी कार्य करने के लिए हमें कुछ बाह्य तथा आंतरिक शक्तियाँ प्रेरित करती हैं और हम किसी कार्य को कर पाते हैं। ये शक्तियाँ ही अभिप्रेरणाएँ हैं।

अभिप्रेरणा की प्रकृति/विशेषताएँ :-
1. प्रेरणा मनोव्यावहारिक क्रिया है।
2. यह किसी आवश्यकता से उत्पन्न होती है।
3. इससे किसी विशेष क्रिया को करने का संकेत मिलता है।
4. प्रेरणा द्वारा प्रसूत क्रिया लक्ष्य प्राप्ति तक रहती है।
5. यह मनोवैज्ञानिक, शारीरिक व आन्तरिक प्रक्रिया है।
6. लक्ष्य निर्देशित व्यवहार पर आधारित प्रक्रिया।
7. अभिप्रेरणा भावात्मक क्रिया है।
8. अभिप्रेरणा में व्यक्ति चयनात्मक क्रिया करता है जो लक्ष्य की ओर ले जाती है।
9. प्रत्येक व्यक्ति में गति अलग-अलग होती है।
10. अभिप्रेरणा तत्परता युक्त प्रक्रिया है।
11 अभिप्रेरणा साध्य न होकर साधन है।
12. ध्यान केन्द्रित प्रक्रिया
13. यह आवश्यकता की संतुष्टि तक रहती है।
14. व्यवहार को प्रारम्भ करना तथा लक्ष्य प्राप्ति हेतु गति प्रदान करना।
15. अभिप्रेरणा चक्रीय व सतत रूप में होती है।
16. अभिप्रेरणा सक्रिय होती है।
17. अभिप्रेरणा अमूर्त होती है।
18. अभिप्रेरणा व्यक्ति की आंतरिक अवस्था को कहा जाता है। यह आंतरिक अवस्था काल्पनिक होती है अर्थात् इसे व्यक्ति के शरीर के भीतर ठोस रूप से देखा नहीं जा सकता है।
19. अभिप्रेरित व्यवहार उत्पन्न होने के बाद उद्देश्य की प्राप्ति तक वह जारी रहता है।

अभिप्रेरणा के प्रकार (Types of Motivation)
1. आन्तरिक अभिप्रेरणा (प्राकृतिक/जन्मजात/अनसीखीसकारात्मक) (Internal Motivation) :- किसी कार्य या क्रिया को स्वयं की इच्छा (स्वत: अभिरुचि) से करते हैं तथा जिसको करने से हमें सुख व संतोष की अनुभूति होती है।
● यह व्यक्ति के जन्म के साथ ही आती है। इनकी पूर्ति अनिवार्य व आवश्यक है। वुडवर्थ ने मूल प्रवृत्तियों को अनसीखी अभिप्रेरणा कहा है। यह अपने आप में कार्य का अन्त होती है।
जैसे- भूख, प्यास, नींद, मलमूत्र त्याग, काम, मातृत्व, प्रेम, सफलता की इच्छा, नेतृत्व, आत्मसम्मान, प्रभुत्व प्रयास, चिंता, संबंधन, उपलब्धि, आकांक्षा स्तर आदि आंतरिक अभिप्रेरणा है।

  1. बाह्यअभिप्रेरणा/द्वितीय(External Motivation) (नकारात्मक अभिप्रेरणा) :- जब किसी कार्य या क्रिया को हम बाहरी व्यक्ति के दबाव में आकर करते हैं। यह मानव रचित/कृत्रिम होती है। यह अनिवार्य रूप से प्रेरित नहीं करती है।
    जैसे- पद, प्रशंसा, पुरस्कार, दण्ड, प्रतिस्पर्द्धा, सहयोग।

अभिप्रेरणा चक्र/कार्य प्रणाली (The Motivational Cycle)
अभिप्रेरणा प्राणी की वह अवस्था है जो उसे किसी आवश्यकता के कारण भीतर से संचालित करती है तथा किसी लक्ष्य की ओर निर्देशित करती है ताकि आवश्यकता की संतुष्टि की ओर वह अग्रसर हो सके।

अभिप्रेरणा के तीन मूल तत्त्व (स्रोत) हैं:-
(i) आवश्यकता
(ii) चालक/अन्तर्नोद
(iii) प्रोत्साहन
आवश्यकता (Need) → चालक (Drive) → प्राणी में आंतरिक तनाव (Tension) → प्रोत्साहन (Incentive) → लक्ष्य प्राप्ति व संतुष्टि (Goal)
Note :- अभिप्रेरणा चक्र में संवेग शामिल नहीं होता है।

अभिप्रेरणा के तत्त्व (Elements of Motivation) :-
अभिप्रेरणा के मुख्य 3 तत्त्व हैं :-
1. आवश्यकता (Need)
2. चालक/प्रणोद/अन्तर्नोद (Drive)
3. प्रोत्साहन/उद्दीपन (Incentive)

  1. आवश्यकता (Need) :- जब प्राणी को शरीर में किसी प्रकार की कमी या अधिकता महसूस होती है तो यह अवस्था आवश्यकता कहलाती है।
    जैसे- हमारे शरीर की कोशिकाओं में ऊर्जा की कमी हो जाने पर हमें भोजन की आवश्यकता होती है।
    ● आवश्यकता अभिप्रेरणा की उत्पत्ति का पहला कदम है।
    ● यदि कोई आवश्यकता पूर्ण नहीं होती है, तो उसके शरीर में तनाव व असंतुलन उत्पन्न हो जाता है, जिसके फलस्वरूप उसका क्रियाशील होना आवश्यक है।
    उदाहरणार्थ :-जब प्राणी को भूख लगती है, तब उसमें तनाव उत्पन्न हो जाता है जिसके फलस्वरूप वह भोजन की खोज करने के लिए क्रियाशील हो जाता है और जब भोजन मिल जाता है तो उसके चालक को संतुष्टि हो जाती है।
    ● अत: आवश्यकता हमें हमारी उस परिस्थिति का बोध करवाती है जिसके द्वारा हमें किसी प्रकार की अपेक्षित व्यवहारजन्य क्रिया करने के लिए बाध्य होना पड़ता है।
    आवश्यकताओं को मुख्यत: दो भागों में बाँटा जाता है:-
    (i) शारीरिक या जैविक आवश्यकताएँ :- भोजन, पानी, काम, निद्रा, मलमूत्र त्याग।
    (ii) सामाजिक-मनोवैज्ञानिक आवश्यकताएँ :- स्वतंत्र होने, आत्मनिर्भर बनने, सुरक्षा, उपलब्धि, स्नेह, सम्मान, सामाजिक मान्यता, साथी बनाने, शक्ति प्रदर्शन, आत्मविश्वास, आत्मपहचान, दूसरों पर आधिपत्य जमाने की आवश्यकता, संबंध बनाने की आवश्यकता आदि।
    ● सबसे कम जरूरी आवश्यकता :- काम (कामुकता)
    ● चक्रीय आवश्यकताएँ :- भोजन, पानी, काम
  2. चालक/प्रणोद/अन्तर्नोद(Drive) :- जब प्राणी को कोई आवश्यकता महसूस होती है तो उसमें एक विशेष प्रकार का तनाव पैदा होता है जिसे चालक कहते हैं। अत: अन्तर्नोद या चालक किसी व्यक्ति की ऐसी मानसिक अवस्था (आंतरिक क्रिया दशा) है जिसका जन्म उसके द्वारा महसूस की जाने वाली आवश्यकता से होता है।
    जैसे- भूख, प्यास।
    (भोजन की आवश्यकता होने पर भूख रूपी चालक पैदा होता है।)

बोरिंगलैगफील्ड एवं वील्ड :- “चालक, शरीर की एक आंतरिक क्रिया या दशा है, जो एक विशेष प्रकार के व्यवहार को करने के लिए प्रेरणा प्रदान करती है।”

शेफर :– “प्रेरक एक सुदृढ़ तथा अचल उत्तेजक है जो किसी समायोजक की अनुक्रिया की माँग करता है।”
अत: – चालक वह शक्ति है जो शरीर को गति प्रदान करती है।
– आंतरिक उद्दीपन है।
– यह प्राणी की विशिष्ट लक्ष्य-निर्दिष्ट क्रिया है।

  1. प्रोत्साहन/उद्दीपन(Incentives) :- किसी वस्तु की आवश्यकता उत्पन्न होने पर उसको पूर्ण करने के लिए ‘चालक’ उत्पन्न होता है और जिस वस्तु से यह आवश्यकता पूर्ण होती है, उसे प्रोत्साहन/उद्दीपन कहते हैं अर्थात् जिस तत्त्व के द्वारा चालक की संतुष्टि होती है, उसे उद्दीपन/प्रोत्साहन कहते हैं।

उदाहरणार्थ :-
1. भूख रूपी चालक के लिए भोजन प्रोत्साहन।
2. प्यास रूपी चालक पैदा हो जाने पर व्यक्ति पानी पीता है तो प्यास बुझ जाती है एवं चालक समाप्त हो जाता है।
अत: प्रोत्साहन लेने पर चालक का समाप्त होना आवश्यकता पूर्ति को दर्शाता है, यही अभिप्रेरणा चक्र है।

प्रेरक/अभिप्रेरक (MOTIVES)

  • वे कारक जो हमें किसी भी कार्य को करने के लिए प्रेरित करते हैं, उन्हें ही प्रेरक कहते हैं अर्थात् जिनसे अभिप्रेरणा कार्य करती है।
    ● ‘प्रेरक’ अति व्यापक शब्द है जिसके अन्तर्गत उद्दीपन के अतिरिक्त चालक, तनाव, आवश्यकता सभी आ जाते हैं।
    ● हिलगार्ड ने एक सूत्र दिया,
See also  पाठ्यक्रम को प्रभावित करने वाले कारक: Factors Influencing Curriculum

MOTIVE = Need + Drive + Incentive
(अभिप्रेरक = आवश्यकता + चालक + प्रोत्साहन/उद्दीपन)
(M = N + D + I)
● इसका व्यापक प्रयोग वुडवर्थ ने किया।

परिभाषाएँ :-
1. वुडवर्थ :- “प्रेरक व्यक्ति की वह अवस्था है जो उसे किन्हीं लक्ष्यों की प्राप्ति हेतु कोई व्यवहार करने को तत्पर करती है।”

  1. गिलफोर्ड:- “अभिप्रेरक से तात्पर्य उस विशेष आंतरिक कारक या दशा से है जो व्यवहार को उत्पन्न करने तथा उसे बनाए रखने में सहायक सिद्ध होती है।”
  2. गेट्स अन्य :- “प्रेरक, प्राणी के भीतर की वे शारीरिक और मनोवैज्ञानिक दशाएँ हैं, जो उसे निश्चित विधियों के अनुसार कार्य करने के लिए प्रेरित करती हैं।”

प्रेरकों का वर्गीकरण
मूल रूप से अभिप्रेरक 2 प्रकार के होते हैं-

(1) आन्तरिक प्रेरक/जन्मजात प्रेरक :- वे प्रेरक जो दैहिक रूप से पैदा होते हैं और ये निश्चित रूप से कार्य करने के लिए प्रभावित करते हैं अर्थात् इनकी संतुष्टि अनिवार्य है।
जैसे- भूख, प्यास, नींद, काम, मलमूत्र त्याग।

(i) भूख :- भूख की उत्पत्ति मांसपेशियों में संकुचन से तथा रक्त में चीनी की मात्रा कम हो जाने से होती है।
– भूख का स्थानीय उद्दीपक सिद्धांत कैनन व वाशवर्न ने दिया है।
– भूख का दूसरा शारीरिक आधार लेट्रल हाइपोथैलेमस (Lateral Hypothalamus – LH) तथा वेन्ट्रोमिडियल हाइपोथैलेमस (Ventromedial Hypothalamus – VMH) है।
(a) LH को बिजली का झटका (उत्तेजन) देने से भूख अधिक लगती है।
(b) VMH को बिजली का झटका (उत्तेजन) देने से भूख कम लगती है।

(ii) प्यास :- प्यास का डबल डिप्लेसन सिद्धांत इपस्टीन ने दिया, जिसके अनुसार प्यास दो शारीरिक क्रियाओं का परिणाम है-
(a) कोशिकाओं में पानी की कमी हो जाना। (Cellular Dehydration) इसे कोशिकीय निर्जलन कहते हैं।
(b) रक्त की मात्रा में कमी हो जाना (Hypovolemia) – इसे हाइपोवोलेमिया कहते हैं।

(iii) नींद :- नींद दो प्रकार की होती है-

(a) तीव्र आँख गतिक नींद (Rem Sleep) – इसमें व्यक्ति को गहरी नींद नहीं आती है और वह प्राय: भिन्न-भिन्न प्रकार के स्वप्न देखता है। इस तरह की नींद में व्यक्ति आधा सोता है तथा आधा जागता है। उसके नेत्र गोलक में तीव्र गति होती पाई जाती है। इसे स्वप्न नींद भी कहा जाता है।

(b) अतीव्र आँख गतिक नींद (Non-Rem Sleep) :- इसमें व्यक्ति गहरी नींद में सोता है तथा व्यक्ति में संवेदी क्रियाएँ बहुत कम होती है। इसमें श्वसन व हृदय गति धीमी तथा रक्तचाप भी कम हो जाता है।

  • मनोवैज्ञानिकों ने हाइपोथैलेमस, थैलेमस तथा रेटिकुलर को नींद का नियंत्रण कक्ष माना है।

(iv) काम या यौन अभिप्रेरक :- काम अभिप्रेरक की संतुष्टि किए बिना ही व्यक्ति जिंदा रह सकता है जबकि भूख, प्यास जैसे प्रेरकों की संतुष्टि किए बिना व्यक्ति का जीवित रहना संभव नहीं है।

  • यौन ग्रंथियों से स्त्री हार्मोन्स तथा पुरुष हार्मोन्स स्त्रावित होते हैं। स्त्री हार्मोन्स में एस्ट्रोजन प्रमुख है तथा पुरुष हार्मोन्स में टेस्टोस्ट्रोन प्रमुख है। टेस्टोस्ट्रोन तथा एस्ट्रोजन हार्मोन्स दोनों में ही अर्थात् पुरुष तथा स्त्री में पाए जाते हैं। अंतर सिर्फ मात्रा का होता है। स्त्री में एस्ट्रोजन हार्मोन्स टेस्टोस्ट्रोन की अपेक्षा अधिक पाया जात है, उसी तरह पुरुष में टेस्टोस्ट्रोन हार्मोन्स एस्ट्रोजन की अपेक्षा अधिक पाया जाता है।

(v) मल-मूत्र त्याग :- मल-मूत्र त्याग भी एक जैविक प्रेरक है।
फ्रायड प्रथम ऐसे मनोवैज्ञानिक थे, जिन्होंने मल-मूत्र प्रेरक के महत्त्व को व्यक्ति के शीलगुणों के निर्माण में काफी महत्त्वपूर्ण बताया है। फ्रायड के अनुसार जिन बच्चों में मल-मूत्र रोकने की प्रवृत्ति अधिक होती है, वैसे बच्चों में वयस्क होने पर जिद्दी तथा कंजूसी का गुण अधिक विकसित होता है तथा जिन बच्चों में मल-मूत्र त्याग नियमित रूप से करने के लिए माता-पिता द्वारा बाध्य किया जाता है तो बड़े होकर उनमें क्रूरता तथा आक्रमणशीलता का शीलगुण तुलनात्मक रूप से अधिक विकसित होता है।

(2) बाह्य प्रेरक/अर्जित प्रेरक :- वे प्रेरक जो बाह्य सामाजिक वातावरण से प्राप्त किए जाते हैं, इन प्रेरकों के समय व्यक्ति अनिवार्य रूप से प्रेरित नहीं होता।
जैसे- पद, प्रतिष्ठा, पुरस्कार, उपलब्धि, प्रशंसा, दण्ड, सम्बन्ध, सत्ता, अनुमोदन, शक्ति आदि।

(i) उपलब्धि प्रेरक (Achievement Motive) :- उपलब्धि अभिप्रेरक का मैक्लीलैंड तथा एटकिन्सन द्वारा विस्तृत अध्ययन किया गया।
उपलब्धि अभिप्रेरक से तात्पर्य एक ऐसे अभिप्रेरक से होता है, जिससे प्रेरित होकर व्यक्ति अपने कार्य को इस ढंग से करता है कि उसे उसमें अधिक से अधिक सफलता मिल सके।

मन व फर्नाल्ड के अनुसार :- “उपलब्धि अभिप्रेरक से तात्पर्य श्रेष्ठता के खास स्तर को प्राप्त करने की इच्छा से होता है।”

सेन्ट्रोक के अनुसार :- “कुछ करने की, श्रेष्ठता के मानक पर पहुँचने की तथा विशिष्टता प्राप्त करने के प्रयास की इच्छा को उपलब्धि आवश्यकता कहते हैं।”
● मनोवैज्ञानिक अध्ययन के अनुसार उपलब्धि प्रेरक का संबंध बचपन में माता-पिता द्वारा दिए जाने वाले स्वतंत्रता प्रशिक्षण से काफी है। स्वतंत्रता प्रशिक्षण से तात्पर्य बच्चों में माता-पिता द्वारा स्वतंत्र रूप से भिन्न-भिन्न तरह के कार्यों को करने देने पर जोर डालने से है। जिन बच्चों को स्वतंत्रता प्रशिक्षण काफी दिया जाता है, उनमें वयस्क होने पर उपलब्धि अभिप्रेरक भी अधिक होता है।

उपलब्धि अभिप्रेरक की विशेषताएँ
(a) ऐसे व्यक्ति जिनमें उपलब्धि अभिप्रेरक अधिक होता है, साधारण कठिनाई वाले कार्य को करना अधिक पसंद करते हैं क्योंकि इस पर सफलता निश्चित होती है।

(b) ऐसे व्यक्ति में उपलब्धि अभिप्रेरक अधिक होता है, वैसे कार्यों को करना अधिक पसंद करते हैं जिसके आधार पर उनकी तुलना अन्य व्यक्तियों के साथ आसानी से की जा सके।

(c) अधिक उपलब्धि अभिप्रेरक वाले व्यक्ति वैसे कार्यों को करना अधिक पसंद करते हैं जिनके द्वारा उनके व्यक्तिगत गुणों जैसे बुद्धि आदि की अभिव्यक्ति हो।

(d) अधिक उपलब्धि अभिप्रेरक वाले व्यक्ति किसी एक कार्य में सफल होते हैं तो वे अपनी इस सफलता को ध्यान में रखते हुए अपनी आकांक्षा के स्तर को धीरे-धीरे ऊँचा करते हैं।

(e) अधिक उपलब्धि अभिप्रेरक वाले व्यक्ति उन परिस्थितियों में अधिक कार्य करना पसंद करते हैं जिसके परिणाम पर उन्हें नियंत्रण काफी होता है ताकि वे निश्चित रूप से यह समझ सकें कि उन्हें सफलता मिलेगी या नहीं।

Note :- उपलब्धि अभिप्रेरक पुरुष एवं महिला में समान नहीं होते हैं अर्थात् उपलब्धि अभिप्रेरक पर यौन (sex) का भी असर पड़ता है।
– उपलब्धि अभिप्रेरणा का आरोपण सिद्धांत :- वाइनर ने

(ii) संबंधन अभिप्रेरक (Affiliation Motive) :- समाज में या दूसरों के साथ रहने की प्रवृत्ति को संबंधन या सामुदायिकता कहा जाता है। संबंधन की आवश्यकता में व्यक्ति या पशु अपने समुदाय के लोगों के साथ रहना चाहता है।
– आसीदा ने अपने अध्ययन में बताया कि प्राणियों में संबंधन व्यवहार जीवन के प्रारम्भिक अवस्था की अनुभूतियों पर निर्भर करता है।

(iii) अनुमोदन अभिप्रेरक :- अनुमोदन अभिप्रेरक से तात्पर्य व्यक्ति द्वारा दूसरों से धनात्मक मूल्यों यानी प्रतिष्ठा, प्रशंसा आदि पाने की उम्मीद होती है।
 6 साल से कम उम्र के बालक माता-पिता से अनुमोदन पाने की इच्छा, बाल्यावस्था के बालक शिक्षक एवं अपने से अधिक उम्र के बालकों से अनुमोदन तथा किशोरावस्था में साथियों से अनुमोदन प्राप्त करना अधिक प्रबल होता है।
 जिन लोगों में अनुमोदन अभिप्रेरक अधिक होता है, वे समूह के नियमों एवं आदर्शों के समरूप व्यवहार अधिक करते हैं।
 क्राउनी व मारलो ने अनुमोदन अभिप्रेरक का अध्ययन किया।

(A) अब्राहम मैस्लो के अनुसार प्रेरक :- ये मूलत: इंग्लैण्ड के अर्थशास्त्री थे, उन्होंने अभिप्रेरणा के क्षेत्र में कार्य करते हुए दो तरह के प्रेरकों का उल्लेख किया-
(i) जन्मजात प्रेरक :- भूख, प्यास, काम, निद्रा, मलमूत्र त्याग। ये प्रेरक व्यक्ति में जन्म से ही पाए जाते हैं। इनको जैविक/शारीरिक प्रेरक भी कहते हैं।
(ii) अर्जित प्रेरक :– ये प्रेरक अर्जित किए या सीखे जाते हैं अर्थात् सामाजिक वातावरण से प्राप्त होते हैं।
जैसे- रुचि, उपलब्धि, सम्बन्ध, शक्ति, आक्रमणशीलता, पद, प्रतिष्ठा, पुरस्कार व आदत।

See also  व्यक्तित्व (PERSONALITY)

 (B) थॉमसन के अनुसार प्रेरक :- थॉमसन ने भी दो प्रकार के प्रेरकों का उल्लेख किया-
(i) स्वाभाविक प्रेरक :– खेल, अनुकरण, सुझाव, प्रतिष्ठा, सुख प्राप्ति, स्नेह, प्रेम, मनोरंजन आदि।
(ii) कृत्रिम प्रेरक :- वे प्रेरक, जो मानव निर्मित व सामाजिक व्यवहार से प्रभावित होते हैं।
जैसे- दण्ड, प्रशंसा, पुरस्कार, सहयोग, सम्मान, पद।

  1. गैरेटकेअनुसार प्रेरक :- गैरेट ने 3 (तीन) प्रकार के प्रेरकों का उल्लेख किया है।
    (i) जैविक/दैहिक प्रेरक :- भूख, प्यास, नींद, काम, मलमूत्र त्याग आदि।
    (ii) मनोवैज्ञानिक प्रेरक :- वे प्रेरक जो प्रबल मनोवैज्ञानिक दशाओं के कारण उत्पन्न होते हैं। गैरेट ने इनके अन्तर्गत संवेगों को स्थान दिया है।
    जैसे- क्रोध, भय, प्रेम, दु:ख, आनन्द।
    (iii) सामाजिक प्रेरक :- वे प्रेरक जो सामाजिक आदर्शों, स्थितियों संबंधों आदि के कारण उत्पन्न होते हैं और व्यक्ति के व्यवहार पर प्रभाव डालते हैं।
    जैसे- आत्म-सुरक्षा, आत्म-प्रदर्शन, जिज्ञासा, रचनात्मकता, सहयोग, आत्मगौरव।

अधिगम में अभिप्रेरणा का स्थान :-
1. बाल-व्यवहार में परिवर्तन।
2. चरित्र निर्माण में सहायक।
3. ध्यान केन्द्रित करने में सहायक।
4. तीव्र गति से ज्ञान का अर्जन।
5. अधिक ज्ञान अर्जन।
6. रुचि/तत्परता का विकास।
7. अनुशासन स्थापित करने में।
8. अभिप्रेरणा व्यवहार को निश्चित दिशा व शक्ति प्रदान करती है।

अभिप्रेरणा की विधियाँ/प्रेरित करने के उपाय :-
1. रुचि उत्पन्न करना।
2. सफलता।
3. प्रतिस्पर्द्धा (Competition) का भाव उत्पन्न करना।
4. प्रशंसा करना।
5. सामूहिक कार्य।
6. परिणाम की जानकारी प्रदान करना।
7. आवश्यकता का ज्ञान करवाना।
8. कक्षा-वातावरण का उचित निर्माण। (अनुकूल)
9. खेल विधि का प्रयोग।
10. पुनर्बलन/पुरस्कार/दण्ड का समुचित प्रयोग।
11. लक्ष्य सामने रखना।
12. सक्रिय भागीदारी।
13. उचित विधियों व प्रविधियों का प्रयोग।
14. ध्यान/अवधान को बनाए रखना।
15. अध्यापक व छात्रों के मध्य मधुर संबंध।
16. उचित उदाहरण व आदर्श प्रस्तुत करना।
17. उचित दृष्टिकोण का विकास।

अभिप्रेरणा के सिद्धांत

  1. मनोविश्लेषणसिद्धांत :-
    प्रतिपादक :-सिगमण्ड फ्रॉयड
    ● इसके अनुसार अचेतन मन मानव के व्यवहार का प्रमुख चालक है। अचेतन मन ही दमित इच्छाओं का भण्डार है।
    ● फ्रॉयड के अनुसार मनुष्य में 2 प्रकार की मूल प्रवृत्तियाँ पाई जाती हैं, जिनसे व्यक्ति सही व गलत कार्यों की दिशा में आगे बढ़ता है।

(i) इरोज (निर्माणात्मक) :- जन्म से संबंधित मूल प्रवृत्ति।
जब व्यक्ति में इस प्रवृत्ति का विकास होता है तो वह सकारात्मक/निर्माणात्मक कार्यों की दिशा में आगे बढ़ता है।

(ii) थनैटॉस (विध्वंसात्मक) :- मृत्यु से संबंधित मूल प्रवृत्ति।
जब व्यक्ति में इस प्रवृत्ति का विकास होता है तो वह विध्वंसात्मक कार्यों की दिशा में आगे बढ़ता है।

  1. उद्दीपन-अनुक्रियासिद्धांत :-
    प्रतिपादक :-स्कीनर, थॉर्नडाइक (व्यवहारवादी)
    ● इस सिद्धांत के अनुसार मनुष्य का व्यवहार शरीर के द्वारा उद्दीपन के फलस्वरूप होने वाली अनुक्रिया है।
    ● व्यक्ति जब भी किसी उद्दीपक को देखता है तो वह उस उद्दीपक के प्रभाव से किसी अनुक्रिया को करता है अर्थात् एक व्यक्ति में पैदा होने वाली अभिप्रेरणा किसी उद्दीपक के प्रभाव से आगे बढ़ती है।
  2. चालक/प्रणोदकासिद्धांत (Drive Theory) :-
    प्रतिपादक :- क्लॉर्क लियोनार्ड हल (C.L. हल)
    ● इस सिद्धांत के अनुसार किसी भी अभिप्रेरणा के लिए चालक महत्त्वपूर्ण होता है। चालक जितना तीव्र होगा, अभिप्रेरणा उतनी ही अधिक कार्य करती है और चालक जितना कमजोर होता है अभिप्रेरणा उतनी ही मंद गति से कार्य करती है।
    अत: व्यक्ति का व्यवहार आवश्यकताओं की संतुष्टि पर निर्भर करता है।
    ● इसे प्रणोद-ह्रास सिद्धांत भी कहते हैं।
  3. प्रोत्साहनसिद्धांत :-
    प्रतिपादक :-बोल्स एण्ड कोफमैन
    इस सिद्धांत में अभिप्रेरित व्यवहार की व्याख्या बाह्य उद्दीपकों तथा उनके पुरस्कार प्रदत्त गुणों के रूप में होती है। व्यक्ति का व्यवहार इस प्रत्याशा से निर्देशित होता है कि वह अमुक व्यवहार करके वांछित परिणाम या प्रोत्साहन को प्राप्त कर सकता है।
    ● इस सिद्धांत के अनुसार व्यक्ति उस दिशा में कार्य करता है जहाँ उसे प्रोत्साहन की प्राप्ति होती है। प्रोत्साहन के अभाव में अभिप्रेरणा चक्र पूरा नहीं होता है।
    उदाहरणार्थ – एक व्यक्ति नौकरी इसलिए करता है क्योंकि नौकरी करने से उसको वेतन प्राप्त होता है।

(i) धनात्मक प्रोत्साहन :- धनात्मक प्रोत्साहन की दिशा में व्यक्ति कार्य करने के लिए आगे बढ़ता है। जैसे- भोजन, पानी आदि।

(ii) ऋणात्मक प्रोत्साहन :- ऋणात्मक प्रोत्साहन की दिशा में व्यक्ति कार्य नहीं करता है। जैसे- बिजली का झटका।

  1. उपलब्धिअभिप्रेरणा का सिद्धांत :-
    प्रतिपादक :- डेविस सी. मैक्लीलैण्ड व एटकिन्सन, 1961
    ● इस सिद्धांत के अनुसार किसी भी व्यक्ति के लिए जिन अवसरों की उपलब्धता होती है, वे उसे कोई कार्य करने के लिए प्रेरित करते हैं तथा अभिप्रेरणा उस कार्य में गति पैदा करती है।
    ● यह श्रेष्ठता की खोज पर बल देता है तथा व्यक्ति को लक्ष्य प्राप्ति की ओर ले जाता है।
    जैसे- अध्यापक भर्ती का विज्ञापन आने पर ही एक प्रतियोगी तैयारी शुरू करता है।
    ● उपलब्धि अभिप्रेरक को मैक्लीलैण्ड तथा उनके सहयोगियों द्वारा विस्तृत रूप से अध्ययन किया गया तथा TAT (Thematic Apperception Test) द्वारा इसे मापा भी गया।
  2. आवश्यकतापदानुक्रमका सिद्धांत :-
    प्रतिपादक :- अब्राहम मैस्लो, 1954 में (मानवतावादी)
    अन्य नाम :– माँग का सिद्धांत
    – स्व-यथार्थीकरण का सिद्धांत
    – आत्मसिद्धि का सिद्धांत
    ● अब्राहम मैस्लो ने मानव की आवश्यकताओं को निम्न से उच्चतम स्तर की ओर एक निश्चित क्रम में प्रस्तुत किया और बताया कि एक आवश्यकता की पूर्ति दूसरी आवश्यकता को जन्म देने का कारण बनती है।
    मानव इन आवश्यकताओं को निम्न से उच्चतम की ओर एक-एक करके पूर्ण करता है।
    ● मैस्लो ने 5 प्रकार की आवश्यकताओं का वर्णन किया, जिनको एक पिरामिड के रूप में प्रस्तुत किया।
    ● निम्नतम आवश्यकता दैहिक/शारीरिक आवश्यकता (जल, भोजन, नींद) है और आत्मसिद्धि सबसे उच्च आवश्यकता है।
    ● दैहिक, सुरक्षा तथा सामाजिक आवश्यकता (स्नेह, प्रेम) को मैस्लो ने अभाव की आवश्यकताएँ कहा है तथा सम्मान पाने व आत्मसिद्धि की आवश्यकता को विकास संबंधी आवयश्कता बताया।
    ● मैस्लो के अनुसार सामाजिक वातावरण में प्राणी सबसे पहले अपनी प्राथमिक आवश्यकताओं (भोजन, पानी, कपड़ा, मकान) की पूर्ति का प्रयास करता है और उसके बाद द्वितीयक आवश्यकताओं (स्नेह, प्रेम, सम्मान, उपलब्धि) की पूर्ति के लिए कार्य करता है और अन्त में पूर्ण मानसिक संतोष की प्राप्ति करता है, जिसे आत्मसिद्धि कहा जाता है।
    ● मैस्लो ने आत्मसिद्धि प्रत्यय का अध्ययन किया और कहा कि आत्मसिद्धि वह स्तर है जहाँ उसकी सभी आवश्यकताओं की पूर्ति हो जाती है और व्यक्ति का मन और मस्तिष्क समान दिशा में या एक होकर कार्य करता है जिसे पूर्ण संतोष या पूर्ण संतुष्टि की प्राप्ति माना जाता है।
    ● आत्मसिद्धि स्तर में व्यक्ति अपनी अन्त:शक्ति की पहचान करके उसके अनुसार प्राप्त करने की कोशिश करता है।

Note :- मैस्लो ने 1959 में सिद्धांत में 3 नए तत्त्व शामिल किए-
1. उत्तेजना आवश्यकता।
2. एकीकरण/समग्र आवश्यकता
3. आध्यात्मिक आवश्यकता :- यह आत्मसिद्धि के बाद आती है। मैस्लो ने इसे B-Motivation कहा है।

  1. मूल प्रवृत्ति सिद्धांत :-
    प्रतिपादक :-विलियम मैक्डूगल
    ● इस सिद्धांत के अनुसार मूल प्रवृत्तियाँ मानव व्यवहार की प्रमुख चालक होती हैं।
    ● इंग्लैण्ड के विद्वान विलियम मैक्डूगल ने 14 प्रकार की मूल प्रवृत्तियाँ तथा उनसे संबंधित संवेगों का उल्लेख किया।
    ● मूल प्रवृत्ति जन्मजात एवं निश्चित व्यवहार पैटर्न है।
    ● मूल प्रवृत्ति अभ्यास से उन्नत नहीं होती है।
  2. अभिप्रेरणाकाप्रत्याशा सिद्धांत :-
    प्रतिपादक :- विक्टर व्रूम, (1964 में)
    ● इस सिद्धांत के अनुसार व्यक्ति का व्यवहार, उस व्यवहार के वांछनीय परिणाम की प्रत्याशा से प्रभावित होता है। इस वांछनीय परिणाम को प्रोत्साहन कहा जाता है।
    जैसे- कोई व्यक्ति एक ऐसा कार्य करता है जो काफी कठिन होने के साथ ही दु:खदायी होता है, तो प्रत्याशा सिद्धांत के अनुसार वह ऐसा इसलिए करता है क्योंकि उसे उम्मीद है कि ऐसा करने से एक ऐसा परिणाम उसे मिल सकता है जिसे वह चाहता है।
    ● यह कर्षण शक्ति, साधनात्मकता तथा आकांक्षा पर बल देता है।
  3. अभिप्रेरणाकालक्ष्य निर्धारण सिद्धांत :-
    प्रतिपादक – लॉके व लाथम ने, 1990 में
    इसके अनुसार अभिप्रेरणा लक्ष्य के स्वरूप से प्रभावित होती है।
  4. अभिप्रेरणाका Y सिद्धांत :-
    प्रतिपादक :- मैक्ग्रेगर, 1960 में
    ● X सिद्धांत में मानवीय व्यवहार को नकारात्मक अवधारणा से विश्लेषित किया गया है। इसके अनुसार व्यक्ति क्षमताविहीन, आकांक्षाविहीन, आलसी होता है और वह शारीरिक व सुरक्षा आवश्यकता तक ही सीमित रहता है।
    ● Y सिद्धांत में मानवीय व्यवहार को सकारात्मक अवधारणा से विश्लेषित किया गया है। व्यक्ति महत्त्वाकांक्षी, परिश्रमी, क्षमतायुक्त, सृजनात्मक होता है। वह शारीरिक से लेकर आत्मसिद्धि स्तर तक अभिप्रेरित होता है।
  5. अभिप्रेरणाकाद्विघटक सिद्धांत :-
    प्रतिपादक :- फ्रेडरिक हजबर्ग।
    ● इसके अनुसार व्यवहार 2 कारकों की संतुष्टि व असंतुष्टि से प्रभावित होता है।
    (i) आरोग्य घटक :- यह वातावरण से संबंधित है तथा निम्न स्तरीय आवश्यकता का प्रतीक है।
    (ii) अभिप्रेरक (कार्यघटक :- यह कार्य संतुष्टि के वास्तविक कारक है तथा उच्च स्तरीय आवश्यकता से संबंधित है।
See also  वैयक्तिक विभिन्नताएँ एवं विशिष्ट बालक

Note :- अभिप्रेरणा स्वास्थ्य सिद्धांत भी फ्रेडरिक हजबर्ग ने दिया।

  1. विरोधीप्रक्रियासिद्धांत
    प्रतिपादक – सोलोमैन तथा कोरविट, 1974 में
    इस सिद्धांत के अनुसार सुख देने वाले लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिए हम अभिप्रेरित रहते हैँ तथा इससे हमें अच्छी सांवेगिक अनुभूति या सुख की अनुभूति होती है तथा वैसे लक्ष्यों को जिनसे हमें अप्रसन्नता होती है, उनसे हम दूर रहना चाहते हैं।
    Note :- इस सिद्धांत को संवेग का भी सिद्धांत माना गया है।
  2. आत्मयास्वनिर्धारण सिद्धांत
    प्रतिपादक – रेयान व डेसी

विशेष तथ्य :-
● डेसी ने अभिप्रेरणा चक्र में एक और तत्त्व (चौथा तत्त्व) जोड़ा है- संज्ञान (Cognitive)
संज्ञान एक सामान्य प्रक्रिया है जिसमें चिन्तन, प्रत्यक्षण, स्मृति, अधिगम आदि प्रक्रियाएँ सम्मिलित हैं।

  • ग्रीन ने अभिप्रेरणा की 3 मुख्य विशेषताएँ बताई हैं:-
    1. उत्तेजन (Activation)
    2. अवस्थिति (Persistence)
    3. तीव्रता (Intensity)
  • अभिप्रेरणा जन्मजात व अर्जित दानों होती हैं।
    ● शारीरिक एवं जैविक आवश्यकताओें से जन्म लेने वाले चालक/प्रणौद जन्मजात होते हैं, जैसे- भूख, प्यास, नींद, काम आदि।
    सामाजिक या मनोवैज्ञानिक आवश्यकताओं से उत्पन्न चालक/प्रणौद अर्जित होते हैं, जैसे- उपलब्धि, शक्ति, सुरक्षा आदि।
    ● शक्ति अभिप्रेरक :- डेविड मैक्लीलैण्ड (1975)

सीखने की प्रक्रिया में अभिप्रेरणा की भूमिका :
अभिप्रेरणा सीखने की प्रक्रिया का एक सशक्त माध्यम है। इस प्रक्रिया द्वारा व्यक्ति जीवन के सामाजिक, प्राकृतिक एवं वैयक्तिक क्षेत्र में अभिप्रेरणा द्वारा ही सफलता की सीढ़ी तक पहुँच जाता है। यदि उसके लिए उपयुक्त परिस्थितियों का निर्माण नहीं हो पाता, तो अभिप्रेरणा का उत्पन्न होना सन्देहप्रद रह जाता है। सीखने की प्रक्रिया में अभिप्रेरणा की भूमिका का अध्ययन भी अति आवश्यक है, शिक्षण के संदर्भ में अभिप्रेरणा एक अच्छे अधिगम की पृष्ठभूमि को तैयार करने का कार्य करती है । 

  1. परिपक्वतायदि शिक्षक विद्यार्थियों की आयु तथा मानसिक परिपक्वता के अनुरूप उन्हेंकार्य दें तो सीखने की क्रिया प्रभावित होगी। परिपक्वता एवं अभिप्रेरणा में समन्वय बैठाया जाए। औपचारिक अधिगम हेतु विद्यार्थी की शारीरिक, मानसिक, संवेगात्मक और सांस्कृतिक रूप से परिपक्वता को देखा जाएगा। 
  2. अभिप्रेरणा में दृष्टिकोण का महत्त्वअभिप्रेरणा में दृष्टिकोण, रुचियों और ध्यान से स्पष्ट रूप से सम्बन्धित होता है। दृष्टिकोण किन्हीं विशेष परिस्थितियों में किसी व्यक्ति की क्रियाओं का समूह होता है। ये दृष्टिकोण ही अभिप्रेरकों को मार्ग देते हैं। ये नए अनुभवों की केवल तैयारी ही नहीं, अपितु अनुभव प्राप्त करने के लिए नई सीमाएँ भी निर्धारित करते हैं।
  3. बालक के व्यक्तित्व को पहचाननाकक्षा में छात्र को हतोत्साहित करना या दण्डितकरना हानिप्रद होता है। दण्ड या हतोत्साहित करना उचित संवेग नहीं है। ये उनके व्यक्तित्व को विघटित करते हैं। इन संवेगों से छात्रों में झिझक, कुण्ठा, अनिश्चितता, आत्म-विश्वास और आत्म-सम्मान में कमी आती हैं और कई बार तो छात्र शाला की क्रियाओं से अलग हो जाते हैं। संवेगों को उचित पोषण एवं मार्गदर्शन न मिलने के अभाव में वे अपराधी प्रवृति अपनाते हैं और सीखने के सही मार्ग को छोड़ देते हैं। 
  4. निश्चित उद्देश्यशिक्षक को चाहिए कि वह विद्यार्थियों के समक्ष कार्य से सम्बन्धितसमस्त उद्देश्य रख दे, पुनः उन्हें स्पष्ट कर दे, ताकि सीखने की प्रक्रिया प्रभावशाली बन सके। 
  5. आत्म-अभिप्रेरणा– उच्च आकांक्षाएँ, स्पष्ट उद्देश्य तथा परिणामों का ज्ञान विद्यार्थी की आत्म-प्रेरणा के लिए प्रोत्साहन का कार्य करते है। इनसे उन्हें आन्तरिक प्रेरणा मिलती हैं। छात्र, शिक्षक के मार्गदर्शन में ही चारित्रिक विकास एवं आदर्श नागरिकता का विकास करना सीखते हैं।
  6. प्रतियोगिताएँसीखने के लिए प्रतियोगिताएँ (स्पर्द्धा) बहुत प्रभावशाली माध्यम हैं। इससे विद्यार्थियों की मूलभूत आवश्यकताओं की पूर्ति होती है। प्रतियोगिताओं में द्वेष की भावना नहीं होनी चाहिए। प्रतियोगिता और सहयोग लोकतान्त्रिक प्रवृत्तियों के विकास के लिए अभिप्रेरणा का मार्ग प्रशस्त करते हैं।
  7. सीखने की इच्छाप्रभावशाली अधिगम के लिए शिक्षार्थी में सीखने की जिज्ञासा अथवाइच्छा का होना अत्यन्त आवश्यक है। बिना इच्छा के अधिगम को प्रभावशाली नहीं बनाया जा सकता है, अभिप्रेरणा का प्रयोग करते हुए शिक्षक छात्रों में सीखने की इच्छा को जाग्रत कर सकता है । 
  8. सीखने में अभिप्रेरणा हेतु आवश्यकताएँसीखने की इच्छा की सुदृढ़ता हेतु विद्यार्थियों के अचेतन मन की आवश्यकताओं को जाग्रत किया जाना चाहिए। अचेतन आन्तरिक इच्छाओं और आवश्यकताओं का सबसे अधिक सत्य संकेत होता है।अतः शिक्षक कक्षा में विद्यार्थी की आवश्यकताओं पर दृष्टि रखते हुए उन्हें पूरा करके विद्यार्थी के सीखने की अभिप्रेरणा को विकसित कर सकता है। इन आवश्यकताओं की पूर्ति से उनके मन में उत्पन्न तनाव कम होता है तथा तनाव के कम होने से वे सीखने की प्रक्रिया में संलग्न हो जाते हैं।
  9. प्रशंसा और निन्दाशिक्षक को सीखने की परिस्थितियों में प्रशंसा और निन्दा का प्रयोगबहुत ही बुद्धिमानी से करना चाहिए। यहाँ उन्हें प्रशंसा और निन्दा हेतु उनकी आयु तथा लिंग का ध्यान रखना चाहिए, क्योंकि जरा-सी असावधानी से विद्यार्थियों का अहित हो सकता है। 
  10. अभिप्रेरणा से ध्यानरुचि और उत्साह प्राप्त करनाकक्षा में अधिगम प्रक्रिया को तीव्रकरने के लिए प्राथमिक पूर्ति के रूप में अभिप्रेरणा आवश्यक है। शिक्षक छात्रों में रुचि उत्पन्न कर ध्यान को केन्द्रित कर देता है। इस प्रकार रुचियों के बढने से अभिप्रेरणा में वृद्धि होती है, फलस्वरूप नए कौशल, उत्साह और सन्तोषप्रद परिणाम दृष्टिगोचर होते हैं। जब विद्यार्थी अधिकाधिक प्रश्न पूछे, तब उसे विषय-वस्तु की व्याख्या विस्तृत रूप से की जानी चाहिए। 

अतः कहा जा सकता है कि अभिप्रेरणा सीखने की प्रकिया में अहम भूमिका का निर्वहन करती है। शिक्षक उचित प्रेरकों का प्रयोग करके, बालकों की अपनी इच्छानुसार कार्य का विषय का चुनाव करने में योग दे सकते हैं। इस प्रकार वह उनको अपनी व्यक्तिगत विभिन्नताओं के अनुसार प्रगति करने का अवसर दे सकता है। प्रेरणा, शिक्षा-प्रक्रिया का मुख्य आधार और सीखने का ऐसा शक्तिशाली साधन है, जिसका प्रयोग करके शिक्षक, बालकों को उनके साध्य तक पहुँचा सकता है, उनकी क्रियाओं को किसी भी दिशा (सफलता से संबंधित) में मोड़ सकता है और उनके व्यवहार में वांछनीय परिवर्तन कर सकता है। 

अभिप्रेरणा का प्रयोग छात्रों के ध्यान को केन्द्रित करने में किया जाता है। छात्रों का ध्यान कुछ वस्तुओं, लोगो, स्वयं के विचारों तथा संवेगों की ओर निर्देशित किया जा सकता है। 

ध्यान देने का अर्थ है छात्रों को मानसिक क्रियाओं में व्यस्त रखना। शिक्षक छात्रों को अभिप्रेरित करके उनका ध्यान पाठ्यवस्तु पर केन्द्रित करने में सहायता कर सकता है। इसके अलावा अभिप्रेरकों द्वारा छात्रों का मानसिक विकास, सामाजिक गुणों का विकास, चारित्रिक विकास आदि के लिए छात्रों को अभिप्रेरित किया जा सकता है। अभिप्रेरणा को शिक्षण प्रकिया के सन्दर्भ में सफलता की प्रथम सीढ़ी माना जा सकता है।

Scroll to Top