Skip to content

छत्तीसगढ़ का इतिहास – मराठा काल

छत्तीसगढ़ का इतिहास – मराठा काल

छत्तीसगढ़ में मराठों का आगमन सन् 1741 में हुआ. उस समय मराठा साम्राज्य की बागडोर, छत्रपति शाहूजी महाराज के हाथों में थी. बाजीराव पेशवा के पुत्र बालाजी बाजीराव उनके पेशवा थे. सन् 1739 में चाँद सुल्तान की मृत्यु के बाद राघोजी राव भोसले ने मराठों की ओर से नागपुर पर कब्जा कर लिया. राघोजी राव भोसले मूलतः सातारा जिले के देउर ग्राम के थे. वे छत्रपति शाहू महाराज के सेनापति थे.

सन् 1741 ई. में भोसला सेनापति भास्कर पंत ने रतनपुर राज्य पर आक्रमण किया. उस समय रघुनाथसिंह रतनपुर के शासक थे. वे 60 वर्ष के थे और उनके इकलौते बेटे की मृत्यु हो चुकी थी. उन्होने आत्मसमर्पण कर दिया.

भोंसला आक्रमण के समय हैहय शासन की दशा –

  1. 18 वीं शताब्दी तक हैहय वंश का गौरव विलुप्त हो चुका था.
  2. इस समय रतनपुर के शासक रघुनाथ सिंह व रायपुर के अमरसिंह नितांत शक्तिहीन थे, और उनमे महत्वकांक्षा का अभाव था.
  3. हैहय राज्य का संगठन दोषपूर्ण था.
  4. दृढ़ सेना का अभाव था.
  5. हैहय सरकार आर्थिक रूप से दिवालिया हो चुकी थी.
  6. जनता पर कर का भार अधिक था.
  7. जेकिंस के अनुसार — राज्य के अधिकांश भागो का विभाजन राज परिवार के सदस्यों व अधिकारियो के बीच हो गया था, जिससे केन्द्रीय शक्ति कमजोर हो चुकी थी.

छत्तीासगढ़ में मराठा शासन को 4 चरणों में बांटा जा सकता है –

  1. प्रत्यक्ष भोसला शासन (1758 – 1787 ई.)
  2. सूबा शासन (1787 – 1818 )
  3. ब्रिटिश शासन के अधीन मराठा शासन (1818 – 1830)
  4. पुनः भोंसला शासन (1830 – 1854)

प्रत्यक्ष भोंसला शासन

सन् 1741 से 1758 ई. तक रघुजी भोसले ने अप्रत्यक्ष शासन किया. जब रघुजी भोसले के सेनापति भास्कर पन्त ने सन् 1741 में रतनपुर पर अपना कब्जा ज़माने का प्रयास किया उस समय रतनपुर का शासक रघुनाथ सिंह था. रघुनाथ सिंह को पराजित कर, भास्कर पन्त ने रतनपुर पर कब्जा कर लिया, किन्तु प्रारम्भ में मराठा प्रतिनिधि के रूप में रघुनाथ सिंह को ही शासन करने दिया गया. सन् 1745 में रघुनाथ सिंह की मृत्यु के बाद मोहनसिंह को शासक नियुक्त किया गया. सन् 1758 में मोहनसिंह की मृत्यु के बाद रघुजी भोंसले के पुत्र बिम्बाजी भोंसले ने रतनपुर में प्रत्यक्ष शासन किया था. छत्तीसगढ़ का पहला मराठा शासक बिम्बाजी भोंसला था. रायपुर शाखा में उस वक्त हैहय वंश के अमरसिंह का शासन था. मराठों ने उनको राजिम रायपुर और पाटन के परगने देकर 7000 रु प्रतिवर्ष कर लेना प्रारंभ कर दिया. अमरसिंह की मृत्यु के बाद उसके बेटे शिवराजसिंह की जागीरें छीनकर मराठों ने उसे पाँच गाँव देकर सन् 1757 में रायपुर में अपना प्रत्यक्ष शासन स्थापित किया. यह नया शासनकाल सन् 1854 तक चलता रहा.

बिम्बोजी भोंसला के शासनकाल में रायपुर और रतनपुर में संगीत एवं साहित्य का विकास हुआ. उन्होने रायपुर का दूधाधारी मंदिर और रतनपुर की रामटेकरी पर राम मन्दिर का निर्माण करवाया. वे काफी लोकप्रिय थे. मराठी संस्कृति की कुछ चीजें छत्तीसगढ़ में भी प्रचलित हो गई – जैसे विजया दशमी पर सोनपत्ती देना. छत्तीसगढ़ में मराठी और उर्दू भाषा का प्रयोग भी बिम्बोजी भोंसला ने शुरू करवाया. रतनपुर राज्य का प्राचीन वैभव धीरे-धीरे खत्म हो रहा था। बिम्बाजी भोंसला की मृत्यु के बाद जब व्यंकोजी राजा बने, तो उन्होनें नागपुर से ही छत्तीसगढ़ का शासन चलाने का निश्चय किया.

बिम्बाजी भोंसले – ( 1758 – 1787 ई.) के शासन की महत्व पूर्ण बातें: –

  1. कलचुरी वंश का अंत हुआ, और मराठा शासन स्थापित हुआ.
  2. 1758 में मोहन सिंह की मृत्यु के बाद बिम्बाजी भोंसले ने इस क्षेत्र में प्रत्यक्ष शासन स्थापित किया.
  3. वे छत्तीसगढ़ के पहले स्वतंत्र मराठा शासक थे जिसने रतनपुर में प्रत्यक्ष शासन किया.
  4. उन्होने रायपुर व रतनपुर इकाई को प्रशासनिक रूप से एक किया.
  5. परगना पध्दति की नीव रखी.
  6. इनकी स्वतंत्र सेना थी, तथा इनका शासन जनहितकारी था.
  7. वे एक राजा की भांति स्वतन्त्र दरबार का आयोजन करते थे.
  8. उन्होने रतनपुर मे नियमित न्यायालय की स्थापना की.
  9. वे राजस्व का कोई भी हिस्सा नागपुर नही भेजते थे.
  10. जमींदारो से होने वाले संधि पत्र पर वे स्वयं हस्ताक्षर करते थे.
  11. उन्होने नई जमींदारी खुज्जी व राजनादगांव की शुरुवात की.
  12. मराठी, उर्दू, और मुड़ी भाषा का प्रयोग शुरू करवाया.
  13. रतनपुर की रामटेकरी में भव्य राममंदिर का निर्माण करवाया.
  14. दशहरा के अवसर पर सोना पत्ती देने की परंपरा की शुरुवात की.
  15. छत्तीसगढ़ को राज्य की संज्ञा दी.
  16. राजस्व सम्बन्धी लेखा तैयार करवाकर राजस्व की स्थिति को व्यवस्थित किया.
  17. भवन निर्माण, कला, संगीत, का साहित्य विकास हुआ.
  18. रायपुर का प्रसिध्द दूधाधारी मंदिर इनके सहयोग से ही बनवाया गया था.
  19. बिम्बाजी में सैनिक गुणों का अभाव था, अतः उन्होने साम्राज्य विस्तार नही किया.
  20. बिम्बाजी मे धार्मिक कट्टरता नही थी.
  21. इनकी पत्नी का नाम उमा बाई था, जो 1787 में इनकी मृत्यु के साथ सती हो गई.
  22. इनकी मृत्यु के समय में यूरोपीय यात्री कोलब्रुक छ.ग. आये थे. कोलब्रुक ने अपनी किताब में लिखा है की — बिम्बाजी की मृत्यु से जनता को सदमा पंहुचा था, क्यूंकि उनका शासन जनहितकारी था, वह जनता का शुभचिंतक व उनके प्रति सहानुभूति रखने वाला था.

सूबा शासन – 1787 – 1818)

सन् 1787 में बिम्बाजी भोंसले की मृत्यु के बाद व्यंकोजी भोंसले राजा बना. इसने छ.ग. में प्रत्यक्ष शासन नही किया, नागपुर में रहकर छ.ग. का शासन संचालन किया. इसके परिणामस्वरूप नागपुर छ.ग. की राजनितिक गतिविधियों का केंद्र बन गया, जिससे रतनपुर का राजनैतिक वैभव धूमिल होने लगा. इसने सूबा शासन (सुबेदारी पध्दति) की शुरुवात की. सूबा शासन प्रणाली मराठो की उपनिवेशवादी नीति का अंग थी. इसे सूबा सरकार भी कहते थे. सूबेदार रतनपुर के मुख्यालय में रहकर शासन का संचालन करते थे. सूबेदारों की नियुक्ति न तो स्थाई थी, और न ही वंशानुगत थी. सूबेदारों की नियुक्ति ठेकेदारी प्रथा के अनुसार होती थी. यह पध्दति 1818 ई. तक छ.ग. के ब्रिटिश नियंत्रण में आने तक विधमान रही. इस दौरान व्यांकोजी का तीन बार छ.ग. में आगमन हुआ था. कुल 8 सूबेदार नियुक्त हुए –

  1. महिपतराव दिनकर (1787 – 90 ) – यह छत्तीसगढ़ के प्रथम सूबेदार थे. इनके समय में शासन की समस्त शक्तियां बिम्बाजी की विधवा “आनंदी बाई” के हाथो में केन्द्रित थीं. इसके शासन काल में ही 17-05-1790 को यूरोपीय यात्री फारेस्टर छत्तसगढ आये थे.
  2. विट्ठलराव दिनकर (1790 – 96 ) – इसका शासन काल बहुत महत्वपूर्ण है. इसके समय में यूरोपीय यात्री मि. ब्लंट का 13 मई 1795 ई. को रतनपुर में आगमन हुआ था. इन्होने राजस्व व्यवस्था में परिवर्तन करके परगना पध्दति बनाई जो 1818 ई. तक चली. पूरे छत्तीसगढ़ को 27 परगनों में विभाजित किया गया. परगना पध्दति का विवरण नीचे दिया गया है –
    1. परगने का प्रमुख कमाविश्दार कहलाता था, इसके अतिरिक्त फड़नवीस, बड़कर आदि नये अधिकारि‍यों को नियुक्त किया गया.
    2. ग्राम के गोंटिया का पद यथावत बना रहा.
    3. इस व्यवस्था के अंतर्गत राजस्व को दो भागो में विभाजित किया गया था –
      1. भूमि कर ,
      2. अतिरिक्त कर
  3. भवानी कालू (1796 – 97) – तीसरे सूबेदार थे. इन्होने बहुत कम समय के लिए सुबेदारी की थी.
  4. केशव गोविन्द (1797 – 1808) – यह चौथे सूबेदार थे. इन्होने सबसे लम्बे समय तक सुबेदारी की. इनके समय में यूरोपीय यात्री कोलब्रुक छ.ग. आया था. इनके समय छत्तीसगढ़ के आसपास पिंडारियो की गतिविधियों का आरम्भ हुआ एवं सरगुजा व छोटानागपुर के मध्य सीमा विवाद उठा.

    व्यंकोजी पिंडारी एवं दिरो कुल्लूगलकर – सन् 1808 से 1809 तक कुछ समय के लिए पिडारियों ने छत्तीसगढ़ पर कब्जा जमा लिया था.

  5. बीकाजी गोपाल – यह पांचवे सूबेदार थे. इनके समय में पिंडारियों ने छत्तीसगढ़ में बड़ा उपद्रव किया. इसी समय व्यंकोजी भोंसले की मृत्यु हुई और उनके स्थान पर अप्पाजी को छत्तीसगढ़ का वायसराय बनाया गया. इसके अतिरिक्त रघुजी भोंसले (व्दितीय) की मृत्यु के बाद अंग्रेजो और मराठो के बीच संधि हुई. व्यंकोजी के मृत्यु के बाद अप्पासाहब छत्तीगसढ़ के वायसराय बन गये. वे लोभी एवं स्वार्थी थे. उन्होने सूबेदारों से अत्याधिक धन की मांग करना प्रारंभ कर दिया. जो सूबेदार धन नहीं दे पाते थे उन्हें वे हटा देते थे.
  6. सखाराम हरि – यह 6 वां सूबेदार था, और केवल 3 माह के लिए रहा.
  7. सीताराम टांटिया – यह 7 वां सूबेदार था. इसका शासन 8 माह के लिए था.
  8. यादवराव दिवाकर (1817 – 1818) – यह अंतिम सूबेदार था. इसके बाद सन् 1818 में छत्तीगसढ़ में ब्रिटिश शासन का प्रारम्भ हो गया, और सूबा पध्दति समाप्त हो गई.
See also  अंतरिक्ष विकास के लिये छत्तीसगढ़ ने इसरो के साथ समझौता किया

सूबा प्रथा की कमियां –

  1. प्रतिभा और कार्यकुशलता के अनुसार नियुक्ति न होकर ठेकेदारी प्रथानुसार नियुक्ति
  2. जनहित की उपेक्षा
  3. सूबा प्रथा शोषण की पर्याय बन गई थी
  4. आय – व्यय के आंकड़ो की जाँच नही होती थी

सूबा प्रथा की समाज व्यवस्था, कर प्रणाली और अर्थ व्यवस्था –

बिम्बाजी भोंसले की मृत्यु के बाद व्यंकोजी राजा बने तो वे छत्तीसगढ़ के शासन को सूबेदार के माध्यम से चलाने लगे. इसी तरह छत्तीसगढ़ में सूबेदार की परम्परा शुरु हुई. इसे सूबा-सरकार भी कहत हैं. रतनपुर सूबेदार का मुख्यालय था और पूरे क्षेत्र का शासन यहीं से संचालित होता था. यह प्रणाली सन् 1787 से 1818 ई. तक चलती रही. यूरोपीय यात्री कैप्टन ब्लंट 1795 में रतनपुर और रायपुर में आये थे. उनका कहना था कि रतनपुर एक बिखरता हुआ गाँव प्रतीत हुआ जहाँ लगभग एक हज़ार झोंपड़ियाँ थी. इससे लगता है कि रतनपुर के विकास की ओर कोई भी ध्यान नहीं दे रहा था. रायपुर के बारे में वे लिखते हैं कि रायपुर एक बड़ा शहर प्रतीत हुआ जहाँ लगभग तीन हज़ार मकान थे.

छत्तीसगढ़ में सुबा-सरकार स्थापित कर मराठा शासक उसके माध्यम से धन वसूल कर नागपुर भेजा करते थे. सुबा-सरकार छत्तीसगढ़ के हित के लिए नहीं थी. मराठा शासक किसानों को सरकार पर आश्रित रखते थे – पैसों के स्थान पर कर के रुप में किसानों से अनाज लिया जाता था. अनाज की बिक्री की कोई उचित व्यवस्था नहीं थी. छत्तीसगढ़ का अनाज नागपुर भेजा जाता था. यातायात की कठिनाई के कारण बहुत ज्यादा खर्च होता था परन्तु किसान जब अपने गाँव में अनाज बेचते थे तो उन्हें उचित मूल्य नहीं मिलता था.

व्यंकोजी भोंसला के बाद रघुजी व्दितीय अप्पा साहब नागपुर के राजा बने. उनकी मूल प्रवृत्ति सैनिक की थी. वे हमेशा युध्दों में फँसे रहते थे. जनता के बारे में सोचने वक्त चाहिये उनके पास नहीं था.

छत्तीसगढ़ के ज्यादातर लोगों की जीविका का आधार कृषि था. प्रमुख उपज – चावल, गेहूँ, चना, कोदो, दाल थी. अनाज की बिक्री की कोई सही व्यवस्था न होने के कारण किसानों को बहुत कष्ट सहना पड़ते थे. मजबूरी के कारण किसानों को अनाज एक जगह से दूसरी जगह ले जाना पड़ता था. अनेक कृषक जल्दी ही एक स्थान को छोड़कर दूसरे स्थान को चले जाते थे. इस कारण कृषि भूमि का समुचित विकास नहीं हो सका. साहुकारों से ॠण लेने के लिए किसान को अपनी जायदाद गिरवी रखनी पड़ती थी और कई बार उनकी ज़मीन छिन जाती थी.

ब्रिटिश शासन के अधीन मराठा शासन (1818 – 1830)

सन् 1817 में तृतीय आंग्ल – मराठा यूध्द के दौरान, सीताबर्डी के युध्द में मराठे पराजित हो गए. सन् 1818 में नागपुर की संधि हुई जिससे छत्तीसगढ़ में अंग्रेजो का अप्रत्यक्ष शासन स्थापित हो गया. अब मराठे अंग्रेजो के अधीन शासन करने लगे. अप्पा साहब के पतन के पश्चात रघुजी तृतीय को नागपुर राज्य का उत्तराधिकारी बनाया गया. परन्तु क्योंकि इस समय रघुजी भोंसले तृतीय काफी छोटे थे, इसलिए अंग्रेजो ने उनकी ओर से एजेंट बनकर शासन किया. नागपुर में प्रथम अंग्रेज रेजिडेंट जेनकिंस को नियुक्त किया गया. इस काल में छत्तीसगढ़ का शासन एक ब्रिटिश अधीक्षक के माध्यम से किया जाता था –

रेज़ि‍डेंट जेनकिंस के समय का प्रशासन

  1. प्रथम ब्रिटिश अधीक्षक – कैप्टन एडमंड – इनका शासन केवल कुछ माह का था. इन्होने अपना सम्पूर्ण समय शान्ति एवं व्यवस्था स्थापित करने में लगा दिया. इनके समय में अप्पा साहब की प्रेरणा से डोंगरगढ़ के जमींदार ने अंग्रेजी शासन के विरुध्द विद्रोह किया था परन्तु उसे दबा दिया गया. इस घटना के कुछ दिन पश्चात ही एडमण्ड की मृत्यु हो गई.
  2. व्दितीय ब्रिटिश अधीक्षक – कैप्टन एग्न्यू (1818 – 1825 ) – कैप्टन एडमंड के बाद मि. एग्न्यू छत्तीसगढ़ के अधीक्षक बने. इनके कार्यों का विशेष महत्त्व है. इन्होने सन् 1818 से 1825 तक छत्तीसगढ़ में सेवा करने के पश्चात अपना त्यागपत्र दे दिया. इन्होने सन् 1818 में रतनपुर से रायपुर राजधानी परिवर्तन किया. प्रशासन को भ्रष्टाचार रहित व चुस्त-दुरुस्त बनाने का प्रयास किया. इनके प्रमुख कार्य नीचे दिये गये हैं –
    1. राजधानी परिवर्तन
    2. छत्तीसगढ़ में 27 परगनों को पुर्नगठित कर केवल आठ परगनों में सीमित किया गया. सबसे बड़ा परगना रायपुर परगना, व सबसे छोटा परगना राजरो था
    3. परगनों की देख रेख के लिए 8 कमाविश्दार नियुक्त किये
    4. कुछ समय पश्चात् नया परगना बालोद परगना बनाया गया
    5. उत्पादन में वृध्दि तथा व्यापार एवं परिवहन आदि के क्षेत्र में भी अनेक सुधार किये
    6. अवांछित करो को समाप्त कर दिया जिससे उत्पादन को प्रोत्साहन मिला और कृषक की आर्थिक स्थिति में सुधार हुआ.
    7. धमधा के गोंड़ राजा के विद्रोह को शांत किया.
    8. सोनाखान के जमींदारो के व्दारा हड़पी खालसा भूमि को वापस करने के लिए बाध्य किया
    9. छत्तीासगढ़ के लिए 3000 घोड़े निर्धारित किये
    10. बस्तर एवं जैपुर जमींदारों के मध्य कोटपाड़ परगने सम्बन्धी विवाद को सुलझाने में सफलता मिली
  3. तीसरे अधीक्षक – कैप्टन हंटर – इन्होने कुछ माह तक शासन किया था.
  4. चौथे अधीक्षक – मि. सेंडिस (1825 – 28) – नागपुर घुड़सवार सेना के पहले सैनिक अधिकारी थे. एग्न्यू के परामर्श के अनुसार इन्हें छत्तीसगढ़ के सैनिक व असैनिक दोनों अधिकार सौपे गए. इन्होने अंग्रेजी वर्ष को जारी किया, अंग्रेजी भाषा को सरकारी कामकाज का माध्यम बनाया और छत्तीसगढ़ में डाक तार का विकास कार्य भी करवाया. सन् 1826 की संधि इनके समय की सबसे प्रमुख घटना थी.
  5. क्राफर्ड –यह सेंडिस के बाद ब्रिटिश अधीक्षक बने इनका कार्यकाल(1828 – 1830) तक था. जेनकिंस के बाद 18-04-1827 को बि‍ल्डर नये रेसिडेंट बने. 27-12-1829 को अंग्रेजो और भोंसलों के बीच में एक नवीन संधि हुई जिसक अंतर्गत छत्तीसगढ का शासन पुनः मराठो को दे दिया. सत्ता का यह हस्तान्तरण 06-01-1830 को संपन्न हुआ. ब्रिटिश अधीक्षक क्राफर्ड ने भोंसले शासक कृष्णराव अप्पा को छत्तीगसढ़ का शासन सौपा. इस दौरान 12 वर्षो तक छ.ग. ब्रिटिश नियंत्रण में रहा.

छत्तीसगढ़ में पुनः भोंसला शासन (1830 – 54)

सन् 1830 में अंग्रेज़ों के साथ हुई संधि के बाद छत्तीसगढ़ में पुनः भोसला शासन स्थापित हुआ. इस समय रघुजी तृतीय का शासन था. इस समय भारत के गवर्नर जनरल विलियम बैटिंक थे. उनकी नीति भारतीय नरेशो के साथ हस्तक्षेप न करने की थी. छत्तीसगढ़ में नियुक्त अधिकारी को जिलेदार कहते थे. कुल 8 जिलेदार नियुक्त हुए थे. प्रथम जिलेदार कृष्णा राव अप्पा थे. सन् 1830 से 1854 के बीच नियुक्त जिलेदारों के नाम हैं – कृष्णाराव, अमृतराव, सदरुद्दीन, दुर्गाप्रसाद, इन्‍टुकराव, सखाराम बापू, गोविंदराव, गोपालराव. गोपाल राव अंतिम जिलेदार थे. पहले जिलेदार कृष्णा राव अप्पा शांत प्रकृति के व्यक्ति थे. छत्तीसगढ़ के जिलेदार बनने से पूर्व वे नागपुर में सदर फड़नवीस के पद पर थे. वे राजस्व सम्बन्धी मामलो में योग्य सिध्द नही हुऐ. रायपुर जिलेदारो का मुख्यालय बना रहा. जिलेदार शासन विषयक जानकारी सीधे राजा को भेजते थे. कमाविसदार मजदूरो से बेगार लेते थे. ग्राम पटेलो की संख्या भी अधिक थी. पहले वर्ष में राजस्व कम एकत्रित हुआ, एवं शासन आर्थिक कठिनाइयों के भंवर में फंसता चला गया.

See also  छत्तीसगढ़ का इतिहास - सिंधु घाटी सभ्यता

रघुजी तृतीय के समय छत्तीसगढ़ में हुए कुछ महत्वपूर्ण सुधार भी हुए जो उन्होने अंग्रेजो की सहायता से किये –

  1. सती प्रथा का उन्मूलन — अंग्रेजो ने 4 सितंबर 1829 को 17 वें नियम के व्दारा बंगाल प्रेसिडेंसी में सती प्रथा के उन्मूलन का आदेश प्रसारित कर दिया था. उन्होने नागपुर के राजा से भी ऐसा ही आदेश जारी करने को कहा जो राजा ने सितंबर 1831 में किया.
  2. बस्तर में नरबली प्रथा पर रोक – इस समय मनिकेश्वरी देवी (दंतेश्वरी देवी) में नरबली प्रथा प्रचलित थी. इस प्रथा के सम्बन्ध में एकमात्र अभिलेख छिंदक नागवंश के राजा मधुरान्तकदेव के ताम्र पत्र से मिलता है जिसपर शकसंवत 987 अंकित है. गवर्नर जनरल लार्ड हार्डिंग के समय इस प्रथा को समाप्त करने के लिए अंग्रेज अधिकारी जॉन कैम्बेल ने नेत्तृत्व किया.
  3. ठगों और डाकुओ का उन्मूलन – छत्तीसगढ़ में ठगों व लुटेरो के गिरोह अनेक वर्षो से थे. मुल्तानी लोगो का गिरोह लूटमार के लिए प्रसिध्द था. मुल्तानी लोग पहले कृषि करते थे. अकबर के समय में भीषण अकाल पड़ने के कारण राजा को अपनी वार्षिक भेंट नहीं दे पाये जिसके कारण उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया. विवशता और प्रतिशोध के कारण इन्होने लूटपाट शुरू कर दिया. ये लोग लूटपाट का ¼ भाग जमींदारो को दिया करते थे. छत्तीसगढ़ में मुल्तानियो के गिरोह का मुखिया सलावत उदा हुस्न और प्यारे जमादार थे. इस गिरोह के कुछ अन्य नेता थे – हीरानायक, उमर खां, दिलावर खां. अंग्रेजो ने उनके गिरोह को नष्ट करने के लिए प्राण दण्ड या कालापानी तक की सज़ा की व्यवसथा की. गवर्नर जनरल विलयम बैंटिंक के समय में कर्नल स्लीमन ने ठगों के विरुध्द कठोर कार्यवाही की. नागपुर राज्य की सीमा में पकड़े गए ठगों व डाकुओ को कठोर दण्ड के साथ जबलपुर जेल में रखा गया. कर्नल स्लीमन ने 1830 तक ठगों का पुर्णतः उन्मूलन कर दिया. ठगों के बच्चो की शिक्षा हेतु जबलपुर में एक औद्योगिक विद्यालय खोला गया.

11 दिसंबर 1853 को रघुजी तृतीय की मृत्यु के समय ब्रिटिश रेसिडेंट मेन्सल थे. उन्होंने उसी दिन राज्य का प्रशासन अपने हाथ में ले लिया. गवर्नर जनरल लार्ड डलहौजी ने राजा व्दारा गोद लिये जाने के अधि‍कार को अमान्य करके अपनी हड़प निति के अंतर्गत 13 मार्च 1854 को नागपुर के ब्रिटिश साम्राज्य में विलय की घोषणा कर दी. 1 फरवरी 1855 को छत्तीसगढ़ के अंतिम मराठा जिलेदार गोपालराव ने, छत्तीसगढ़ का शासन, ब्रिटिश शासन के प्रतिनिधि, प्रथम डिप्टी कमिश्नर चार्ल्स सी इलियट को सौप दिया.

मराठाकालीन छत्तीसगढ़ में भूराजस्व व्यवस्था

बिंबाजी जी की मृत्यु के बाद छत्तीसगढ़ में भोसला शासन के वाइसराय के रूप में व्योकोंजी ने छत्तीसगढ़ में वाइसराय का पद संभाला परंतु सम्पूर्ण शासन का भार सूबेदारों पर छोड़ दिया. खुद नागपुर की राजनीति में उलझे रहे. व्यंकोजी को छत्तीसगढ़ में सूबा शासन का संस्थापक माना जाता है. ये सूबेदार निजी स्वार्थों व धन संचय की भावना से प्रभावित थे । परिणाम स्वरूप छत्तीसगढ़ में आतंक, अराजकता, अनिश्चितता एवं अव्यवस्था की स्थिति बनी रही. इस शासन के दौरान छत्तीसगढ़ के अनेक गांव वीरान हो गये लोग कठिनाइयों के शिकार बनते रहे. कृषि की दशा दयनीय हो गई एवं सन् 1818 तक यहां के राजस्व में 3 लाख से अधिक वृध्दि न हो सकी. जबकि सूबाशासन से पूर्व राजस्व की मद लगभग साढ़े छः लाख रूपये था.

प्रशासनिक अनुभव हीनता के कारण सूबेदारों के दफ्तरों की दशा अत्यंत दोषपूर्ण, अपूर्ण और अव्यवस्थित थी. सूबेदार मनमानी ढंग से खर्च करने के लिये स्वतंत्र थे. उनके स्थायित्व का प्रश्न अनिश्चित होने के कारण उनके हृदय में जनहित की भावना नहीं रहती थी. अतः सूबा शासन के अंतर्गत छत्तीसगढ़ में केवल पीड़ा, आतंक और लूटखसोट का ही बोलबाला रहा. सत्ता संघर्ष में लीन मराठा शासकों की उपेक्षा का शिकार छत्तीसगढ़ को होना पड़ा. सन् 1818 में जब सूबेदारी शासन का अंत नाटकीय ढंग से हुआ तब इस क्षेत्र की जनता ने राहत की सांस ली. विट्ठल दिनकर ने राजस्व व्यवस्था में परगना पध्दति की शुरूआत की. छत्तीसगढ़ में परगनों की संख्या 27 थी. संपूर्ण छत्तीसगढ़ का शासन दो भागों में विभाजित किया गया.

    1. खालसा क्षेत्र
    2. जमींदारी क्षेत्र

खालसा पर उन्होने प्रत्यक्ष शासन का अधिकार रखा और जमींदारी क्षेत्र को जमींदारों के स्वतंत्र शासन में रखा. जमींदार मराठों द्वारा निर्धारित राशि नियमित एवं निश्चित रूप से शासन को अदा करते थे. मराठे लगान वसूली के तरीके भूमि नाप एवं किसानों और गौंटियों के बीच संबंध में कोई नया नियम लागू नहीं किया गया. इनके व्दारा शासन में आने वाले परिवर्तन का मात्र लेखा-जोखा और राजस्व की वसूली को नियमित बनाना था.

मराठों ने सन् 1790 ई. में ही राजस्व के क्षेत्र में कुछ परिवर्तन करने का प्रयास किया था. लेकिन वे उसे पूरी तरह से वैज्ञानिक न बना सके. भूमिकर का निर्धारण का काम ग्राम स्तर पर होता था. इस नियम में नागपुर शासन के अनुकूल समय-समय पर परिवर्तन होते रहते थे. भूमि की नाप का आधार किसानों के हलों की संख्या थी. कर के निर्धारण का कार्य गौंटिया और किसानों के मध्य आपसी समझौते के आधार पर किया जाता था. जमीन संबंधी कोई अभिलेख नहीं रखा जाता था. प्रत्येक परगने का कर निर्धारण पूर्व प्रचलित परंपरा और क्षेत्र की समकालीन परिस्थिति को ध्यान में रखकर किया जाता था. कर-वसूली नागपुर से प्राप्त निर्देशानुसार विगत वर्ष की वसूली के आधार पर की जाती थी. राजस्व में बराबर वृध्दि करते रहने की आम परम्परा थी.

संपूर्ण प्रदेश में राजस्व की वसूली में लूट सी मची हुई थी. कर-वसूली के लिये न कोई सामान्य सिध्दांत और न कोई निश्चित नियम. फसलीय वर्ष का प्रारंभ प्रतिवर्ष जून से होता था. उस समय सूबेदार और कमाविसदार क्षेत्रीय किसानों को अधिक-से-अधिक तादाद में जमीन को जोत के अन्तर्गत लाने के लिये प्रोत्साहित करते थे. भूमि वितरण के संबंध में गांव का गौटिया किसानों की सामूहिक शिकायतें सुनकर के उनके संतोष के अनुसार भूमि का वितरण करता था. बोनी समाप्त होने पर कमाविसदार क्षेत्रिय किसानों से विगत बकाया राशि की वसूली के तगादे भी करता था. अगस्त के अंत तक सूबेदार सभी कमाविसदारों को कुल राजस्व की राशि का एक तिहाई अंश वसूल कर उसे अक्टूबर तक खजाने में जमा कराने के आदेश देता था. वह उसे पिछला बकाया वसूल करने की भी आज्ञा देता था.

परगना के वार्षिक लगान का एक तिहाई भाग वसूला जाकर सितंबर या अक्टूबर माह में खजाने में जमा कर दिया जाता था. परंतु यह वार्षिक कर-निर्धारण परती भूमि, मौसम की खराबी, जानवरों की बीमारी आदि का ख्याल रखकर किया जाता था. लगान की दूसरी किस्त एक तिहाई अंश की ही होती थी. उसकी अदायगी भी 5 जनवरी को की जाती थी. कमाविसदार अपने क्षेत्र का दौरा कर वहां की परिस्थितियों को मालूम करता था. लगान की तीसरी और अंतिम किस्त की वसूली का तरीका भी दूसरी किस्त की ही तरह था. तथा इसकी वसूली की अंतिम तिथि 5 अप्रैल थी. दूसरी किस्त के पश्चात जनवरी के अंतिम सप्ताह में सूबेदार अपना दौरा प्रारंभ करता था. जिसकी पूर्व सूचना कमाविसदार, गौटिया या पटेलों को दे दी जाती थी. कर निर्धारण अभिलेख दफ्तर में होता था. परगने का फड़नवीस एक रिर्पोट तैयार करता था. परगना में राजस्व, पिछला बकाया, चालू वर्ष की लगान राशि, किश्तों का विवरण किया जाता था. सूबेदार आठ दस सप्ताह में संपूर्ण प्रदेश का दौरा कर वार्षिक हिसाब बंद करता था और उसका विवरण नागपुर को भेज देता था. मराठों ने राजस्व के क्षेत्र में पटेलों की नियुक्ति का प्रावधान किया ये एक से अधिक गांवों की देख- रेख करते थे. कृषक इनके आश्रित होते थे. मराठों ने भूमि व्यवस्था के लिए एक नवीन व्यवस्था का सूत्रपात किया जिसका नाम ताहुतदारी प्रथा रखा गया.

See also  छत्तीसगढ़ का इतिहास - History Of Chhattisgarh

गौंटियाः छत्तीसगढ़ में यह पद प्राचीन काल से था. यह गांव का मुखिया होता था. उसका पद न तो वंशानुगत होता था और न ही उसे बेचा जा सकता था. गांव प्रधान होने के कारण वह गांव की सुख-सुविधा का ध्यान रखता था और जनता का आदर प्राप्त करता था. लगान निर्धाण एवं उसकी वसूली के लिये जिम्मेदार होता था. किसानों के सलाह से भूमि का आबंटन करता था. किसानों को आवास और काश्त की सुविधा प्रदान करता था. समय-समय पर उन्हें बीज, धन व जानवर से मदद भी पहुंचाता था. इन दायित्वों के निर्वाह के लिए उसे गांव में अनेक सुविधायें और रियायतें प्राप्त थी. उसे गांव में ‘सेराडोली’ नामक अतिरिक्त भूमि प्राप्त थी. उस भूमि पर गांव के किसान कृषि करते थे, एवं उससे होने वाली आय गांव में आने वाले अधिकारियों एवं यात्रियों के भोजन एवं आवास पर खर्च होता था.

ताहुतदारी – भूमि व्यवस्था के लिये मराठों ने इस नई व्यवस्था का सूत्रपात किया. इसमें किसी क्षेत्र विशेष की भूमि एक अवधि के लिए ठेके पर दी जाती थी. ठेके की राशि ताहुतदार खजाने में जमा कराते थे. कैप्टेन सेण्डिस के समय तरेंगा और लोरमी में 2 ताहुतदार बनाए.

भू-राजस्वू के अतिरिक्त भी अनेक प्रकार के कर थे –

      1. टकोली – यह ज़मींदारों व्दारा दी जाने वाली निश्चि‍त राशि थी.
      2. सायर – यह आयात-निर्यात कर था.
      3. कलाली – यह आबकारी कर था जो मादक द्रव्यों पर लिया जाता था.
      4. पंडरी – यह गैर कृषि कार्य करने वालों जैसे बड़ई, लुहार आदि से लिया जाता था और आय का 10 प्रतिशत था.
      5. सेवई – अनेक छोटे अस्थाई करों का सम्मिलित नाम सेवई था.
      6. ज़मींदारी टेक्स – आयाति‍त अनाज पर प्रति गाड़ी तीन पायली लिया जाता था.

भोंसला शासनकाल की अन्य महत्वपुर्ण बातें

विनिमय – इस समय कई प्रकार के सिक्के चलते थे – रघुजी का रुपया, अग्नु लाला, रामजी टांटिया, मनभट्ट, शिवराम, जरीपटका, चांदी का रुपया, जबलपुरी रुपया आदि. अलग- अलग प्रकार की मुद्राएं चलने के कारण तकनीकी रूप से मुद्रा प्रणाली दोषपूर्ण थी.

न्याय और पुलिस व्यवस्था – ब्रिटिश काल में बनाई गई न्याय और पुलिस व्यवस्था चलती रही परंतु अक्षमता और भ्रष्टाचार के कारण शिथिल हो गई.

भ्रष्टाचार –अधिकारियों में भ्रष्टाचार व्याप्त था और जिलेदार तक इससे मुक्त नहीं थे. सदरुद्दीन ने एक लाख रुपयों का गबन किया और पकड़े जाने पर भी केवल 60 हज़ार रुपये ही वापस किए. उसे भ्रष्टाचार के कारण बर्खास्त किया गया. उसका उत्तराधिकारी जिलेदार भी भ्रष्टाचार के कारण पदमुक्त किया गया. आम जनता इस भ्रष्टाचार से त्रस्त रहती थी. रघुजी का समय सूबा सरकार से बहुत बेहतर था परन्तु बीच के अंग्रज़ों के समय की तुलना में कमज़ोर था.

मराठों की शासन व्यवस्था

बिंबाजी के समय प्रत्यक्ष भोंसला शासन था. उसके बाद भोसलों ने सूबेदारों के माध्‍यम से शासन किया. बीच में ब्रिटिश शासन रहा और उसके बाद भोसलों का प्रत्यक्ष शासन लौटने पर ज़ि‍लेदारों के व्दारा शासन किया गया. राज्य का विभाजन कर की दृष्टि से खालसा क्षेत्र और ज़मीन्दा‍री में किया गया था. खालसा क्षेत्र की व्यवस्था का दायित्व सूबा का होता था और ज़मीन्दा‍री क्षेत्र में ज़मीन्दार का. इसके एवज़ में ज़मीन्दार एक निर्धारित राशि देता था, जिसे टकोली कहते थे. भोसलों के समय में प्रमुख अधिकारी थे –

      1. सूबेदार – जो राजा के नाम पर उसके प्रतिनिधि के रूप में शासन करता था.
      2. कमाविसदार – जो परगना का प्रमुख था.
      3. फड़नवीस – आय-व्यय का हिसाब रखता था.
      4. बड़कर – कमाविसदार के अधीन था, तथा फसल आदि की सूचना भेजता था.
      5. बरारपांडे – गांव का दौरा करके लगान का ब्योरा तैयार करता था.
      6. पंडरीपांडे – मादक द्रव्यों से होने वाली आमदनी का हिसाब रखता था.
      7. पोतदार – खजान्ची था.
      8. माल चपरासी – कमाविसदार के अधीन थे, और क्षेत्र में घूमकर अपराधियों की खबर रखते थे, तथा वसूली का कार्य भी करते थे.
      9. ग्राम स्तर के अधिकारी – हैहय काल के गोंटिया का पद सामाप्त नहीं किया गया था. यह गांव में भूमि आबंटन और लगान निर्धारण करता था. यह गांव का मजिस्ट्रेट और पुलिस भी था. यह गांव की जनता का विश्वासपात्र था तथा उनके अधिकारों की रक्षा भी करता था.
      10. पटेल – यह लगान वसूली का काम करते थे और इन्हें प्रति रुपया एक आने का कमीशन मिलता था.
      11. चौहान – यह गोंटिया के नियंत्रण में गांव की रक्षा करता था.

न्याय व्यवस्था – न्याय के लिये अदालतें नहीं थीं. गांव में गोंटिया या पटेल न्याय करते थे. बड़े प्रकरणों में कमाविसदार या सूबेदार का निर्णय होता था और बिरले प्रकरणों में नागपुर में राजा का निर्णय होता था. बिंबाजी के समय राजा के रतनपुर में रहने क कारण न्याय सुलभ था. बाद में जनता को न्याय मिलना कठिन हो गया. ब्राह्मण, बैरागी और गोसाई जाति के लिये मृत्युदंड नहीं था. महिलाओं को भी मृत्युदंड नहीं दिया जाता था. परंपरागत पंचायतों व्दारा भी न्याय किया जाता था. परन्तु पंचायतों को संबंधित पक्षों को उपस्थित कराने और अपने निर्णयों का पालन कराने के लिये बाध्य करने का अधिकार नहीं था और वे सामाजिक दबाव से ही काम करा सकती थीं. पुलिस की कोई व्यवस्था नहीं थी. पूरे राज्य में जासूसी करने और सूचना एकत्र करने के लिये हरकारे थे परंतु यह व्यवस्था प्रभावी नहीं थी. मराठों के पास आंतरिक और वाह्य खतरों से निपटने के लिये सेना थी. बिंबाजी के सभी 5000 सैनिक नागपुर से ही आये थे.

शिक्षा – शिक्षा का प्रबंध अक्सर घर पर ही किया जाता था. कभी-कभी गांव के लोग भी ब्रा‍ह्मणों को शिक्षक रख लेते थे और उन्हें वार्षिक भेंट के रूप में अन्न देते थे. रतनपुर और रायपुर में राज्य की ओर से शिक्षा की कुछ व्य‍वस्था की गई थी. शिक्षा का माध्यम हिन्दी और मराठी था.

धार्मिक दशा – छत्तीसगढ़ के मूल जनजातीय निवासी गांव के बूढ़ा देव की पूजा करते थे. अन्य लोग मुख्य रूप से हिन्दू धर्मावलंबी थे. छत्तीसगढ़ में इस समय में कबीरपंथ का प्रसार भी बहुत हुआ था. इसे हिन्दू एवं मुसलमान दोनो ही मानते थे. 1820 से 30 के बीच गुरू घासीदास के सतनाम पंथ का प्रसार भी काफी हुआ. इनके अनुयायी बड़ी संख्या में थे.

Scroll to Top