पेप्सू मुजहरा आंदोलन

पेप्सू मुजहरा आंदोलन

19 मार्च को पेप्सू मुजहरा आंदोलन की वर्षगाँठ मनाई जाती है, यह पंजाब में एक कृषि संघर्ष था, जिसमें बटाईदार किसानों (मुजहराओं) के लिए भूमि स्वामित्व अधिकारों की लड़ाई लड़ी गई थी।

पेप्सू मुजहरा आंदोलन (PEPSU Muzhara Movement) के बारे में

  • पेप्सू मुजहरा आंदोलन भारत के पटियाला और पूर्वी पंजाब राज्य संघ (Patiala and East Punjab States Union- PEPSU) क्षेत्र में एक महत्त्वपूर्ण कृषि आंदोलन था।
  • यह आंदोलन 1930 के दशक में शुरू हुआ और स्वतंत्रता के बाद गति पकड़ी, जिसके परिणामस्वरूप वर्ष 1952 में भूमि सुधार हुए।
  • कारण: यह आंदोलन जमींदारों के हाथों काश्तकारों (मुजहरा) द्वारा सामना की जाने वाली शोषणकारी प्रथाओं के कारण उत्पन्न हुआ।
  • मुख्य मुद्दे शामिल थे:-
    • यह मुख्य रूप से काश्तकारों (मुजहरा) के अधिकारों पर केंद्रित था, जो जमींदारों (जागीरदारों) द्वारा शोषणकारी प्रथाओं के अधीन थे।
    • इस आंदोलन ने उचित भूमि पुनर्वितरण, अत्यधिक किराए में कमी और सामंती प्रथाओं के उन्मूलन की माँग की।
  • परिणाम: इस आंदोलन ने स्वतंत्रता के पश्चात् भारत में, विशेष रूप से पंजाब में भूमि सुधारों को आकार देने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई। प्रमुख परिणामों में शामिल हैं:
    • काश्तकारों के अधिकारों के बारे में जागरूकता बढ़ी।
    • वर्ष 1952 तक, संघर्ष के कारण भूमि सुधार हुए और अंततः काश्तकारों को स्वामित्व अधिकार प्रदान किए गए।
    • इसे पंजाब के कृषि इतिहास में एक उदाहरण के रूप में याद किया जाता है, जो उत्पीड़न और अन्याय के विरुद्ध किसानों के संघर्ष को दर्शाता है।
  • समर्थन: इस आंदोलन को विभिन्न राजनीतिक समूहों और किसान संगठनों का समर्थन प्राप्त था, जिसके कारण जागरूकता बढ़ी और अंततः काश्तकारों के अधिकारों की रक्षा के लिए विधायी परिवर्तन किए गए।

मुजहरा (Muzharas) कौन थे?

  • मुजहरा भूमिहीन काश्तकार थे, जो पीढ़ियों से जमीन पर खेती करते थे, लेकिन उनके पास मालिकाना हक नहीं था।
  • ब्रिटिश शासन के तहत, कई छोटे किसानों को अपनी जमीन छोड़ने और सामंती जमींदारों के अधीन कार्य करने के लिए मजबूर होना पड़ा, जिन्हें बिस्वेदार के नाम से जाना जाता था।
  • शोषणकारी व्यवस्था
    • बिस्वेदार (जमींदार) हवेलियों में रहते थे और काश्तकारों से उपज का एक-तिहाई हिस्सा वसूलते थे।
    • वे राजा को हिस्सा देते थे, जो बाद में अंग्रेजों को राजस्व देता था।
    • स्वतंत्रता के बाद भी, जमींदारों ने अपना हिस्सा माँगना जारी रखा, जिससे किसान आर्थिक रूप से गुलाम बने रहे।
  • इस आंदोलन का उद्देश्य इस प्रणाली को समाप्त करना तथा भूमि जोतने वाले किसानों को मालिकाना हक प्रदान करना था।

स्वतंत्रता के बाद आंदोलन कैसे तीव्र हुआ

  • वर्ष 1949 में, जमींदारों (बिस्वेदारों) ने मुजहराओं से जमीन वापस लेने का प्रयास किया, जिसके कारण किशनगढ़ गाँव में हिंसक झड़पें हुईं।
  • काश्तकारों ने इसका विरोध किया, फसलें काट लीं और उन्हें अपने उपयोग के लिए संगृहीत कर लिया।
  • पटियाला पुलिस ने हस्तक्षेप किया, जिसके कारण झड़पें हुईं और 17 मार्च, 1949 को एक पुलिस अधिकारी की मौत हो गई, और 35 मुजराओं को गिरफ्तार किया गया, लेकिन बाद में उन्हें बरी कर दिया गया।
  • 19 मार्च, 1949 को सेना ने किशनगढ़ को घेर लिया, जिसके परिणामस्वरूप चार काश्तकार मारे गए।
    • यह दिन प्रतिरोध का प्रतीक बन गया और वर्ष 1953 से प्रतिवर्ष मनाया जाने लगा।
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आंदोलन के प्रमुख नेता

  • जागीर सिंह जोगा – काश्तकारों को संगठित किया और प्रतिरोध प्रयासों का नेतृत्व किया।
  • बूटा सिंह – भूमि अधिकारों और पुनर्वितरण के लिए संघर्ष किया।
  • तेजा सिंह सुतंतर – क्रांतिकारी गतिविधियों के माध्यम से पेप्सू मुजहरा आंदोलन का समर्थन किया।
  • सेवा सिंह ठीकरीवाला – प्रारंभिक रियासत विरोधी संघर्षों को प्रभावित किया।
  • भाई जोध सिंह – जागरूकता फैलाई और आंदोलन को मजबूत किया।

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मुज़हरा आंदोलन 1930 के दशक में तत्कालीन पटियाला रियासत के गांवों में उभरा, जो बाद में स्वतंत्रता के बाद पटियाला और पूर्वी पंजाब राज्य संघ (PEPSU) का हिस्सा बन गया ।

यह बिस्वेदार नामक सामंती जमींदारों के खिलाफ प्रतिरोध था, जो बड़ी-बड़ी सम्पदाओं पर नियंत्रण रखते थे और बटाईदार किसानों (मुजहराओं) को अपनी कृषि उपज का कुछ हिस्सा छोड़ने के लिए मजबूर करते थे।

मुजहरा भूमिहीन किसान थे जो पीढ़ियों से भूमि जोतते आ रहे थे, लेकिन उनके पास कोई मालिकाना हक नहीं था ।

ब्रिटिश शासन के तहत कुछ छोटे किसानों को अपनी जमीन सौंपने और मुजहरा के रूप में काम करने के लिए मजबूर किया गया था।

पटियाला में सामंती व्यवस्था विशेष रूप से शोषक थी, जहां मुजहराओं द्वारा खेती की गई भूमि से प्राप्त उपज का एक तिहाई हिस्सा बिस्वेदारों को जाता था तथा कुछ हिस्सा राजा को दिया जाता था, जो ब्रिटिश अधिकारियों को राजस्व का भुगतान करता था।

सामंती उत्पीड़न और आर्थिक कठिनाई का प्रभाव:

सामंती जमींदार बड़ी हवेलियों में रहते थे और गांवों में महत्वपूर्ण सामाजिक और आर्थिक शक्ति रखते थे।

इस व्यवस्था ने किसानों को बंधुआ मजदूरी में रखा और उन्हें धन संचय करने या गरीबी के चक्र से मुक्त होने से रोका।

1947 में स्वतंत्रता के बाद भी बिस्वेदारों ने अपनी उपज में हिस्सा मांगना जारी रखा, जिससे तनाव बढ़ता गया।

यदि किरायेदार किसान विरोध करते तो उन्हें जबरन मजदूरी, शोषण और बेदखली का सामना करना पड़ता था।

1940 के दशक के अंत में यह आंदोलन तीव्र हो गया, जब मुजहराओं ने उन जमीनों पर स्थायी स्वामित्व की मांग शुरू कर दी, जिन पर वे पीढ़ियों से खेती करते आ रहे थे ।

मार्च 1949 किशनगढ़ गाँव में विद्रोह:

मार्च 1949 का महीना आंदोलन में एक निर्णायक क्षण बन गया, जब बिस्वेदारों ने किशनगढ़ गांव (जो अब पंजाब के मनसा जिले में है) में मुजहराओं से बलपूर्वक भूमि वापस लेने का प्रयास किया ।

मुजहराओं ने अपनी जोत-जोत वाली जमीन को छोड़ने से इनकार करते हुए इसका डटकर मुकाबला किया ।

समय के साथ आस-पास के गांव भी संघर्ष में शामिल हो गए और उन्हें नैतिक और शारीरिक समर्थन प्रदान करने लगे।

किशनगढ़ में मुजहराओं ने जमींदारों को कर देने से इनकार करते हुए कृषि उत्पादन पर पूर्ण नियंत्रण कर लिया।

उन्होंने गन्ने की कटाई की, गुड़ का उत्पादन किया और राज्य बलों के खिलाफ लंबे समय तक प्रतिरोध की तैयारी के लिए खाद्य आपूर्ति का भंडारण किया।

पटियाला पुलिस ने हस्तक्षेप किया जिसके परिणामस्वरूप झड़पें हुईं और  17 मार्च 1949 को एक पुलिस अधिकारी की मृत्यु हो गई ।

35 मुजहराओं को गिरफ्तार किया गया और उन पर हत्या का आरोप लगाया गया, लेकिन फरवरी 1950 में वे सभी बरी कर दिए गए , जो आंदोलन के लिए महत्वपूर्ण कानूनी जीत थी।

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शहादत दिवस:

19 मार्च 1949 को पेप्सू प्रशासन ने आंदोलन को दबाने के लिए सेना भेजी।

किशनगढ़ गांव को सशस्त्र बलों ने घेर लिया, जिसके कारण हिंसक झड़प हुई।

चार मुजहरा संघर्ष में शहीद होकर युद्ध में मारे गये 

इस घटना ने 19 मार्च को किसानों के बलिदान की याद में प्रतिवर्ष मनाए जाने वाले प्रतीकात्मक दिवस में बदल दिया।

1953 से 19 मार्च को आधिकारिक तौर पर  मुज़हरा संघर्ष दिवस के रूप में मान्यता दी गई और किशनगढ़ में वार्षिक सभाएं आयोजित की जाने लगीं।

मुज़हरा आंदोलन के प्रमुख नेता:

नेता

योगदान

जागीर सिंह जोगा

किरायेदार किसानों को संगठित किया, विरोध प्रदर्शन आयोजित किए और जमींदारों के खिलाफ प्रतिरोध प्रयासों का नेतृत्व किया।

बूटा सिंह

भूमि अधिकारों और पुनर्वितरण नीतियों के लिए लड़ने वाले प्रमुख कार्यकर्ता।

तेजा सिंह सुतंतर

पंजाब में कई किसान आंदोलनों से जुड़े एक क्रांतिकारी, मुजहरा आंदोलन का समर्थन किया।

सेवा सिंह ठिकरीवाला

यद्यपि वे पहले भी रियासत-विरोधी संघर्षों में शामिल रहे, लेकिन उनकी विचारधारा ने आंदोलन को प्रभावित किया।

भाई जोध सिंह

बिस्वेदारों के खिलाफ जागरूकता फैलाने और प्रतिरोध को मजबूत करने में प्रमुख भूमिका निभाई।

स्वतंत्रता के बाद का प्रभाव और भूमि सुधार:

वर्षों के संघर्ष और वकालत के बाद 1952 तक PEPSU सरकार ने भूमि सुधार लागू कर आधिकारिक तौर पर किरायेदार किसानों को मालिकाना हक प्रदान कर दिया ।

सुधारों ने बिस्वेदारी (जमींदारी) को समाप्त कर दिया और हजारों मुजहराओं को भूमि का पुनर्वितरण किया , जो भारतीय इतिहास में सबसे सफल किसान आंदोलनों में से एक था।

इस आंदोलन को स्वतंत्र भारत में भूमि पुनर्वितरण और कृषि न्याय के प्रारंभिक उदाहरण के रूप में देखा गया 

इसने पंजाब में भूमि अधिग्रहण के खिलाफ विरोध प्रदर्शन और किसान अधिकार संघर्ष सहित भविष्य के किसान आंदोलनों को महत्वपूर्ण रूप से प्रेरित किया ।

वार्षिक स्मरणोत्सव एवं सांस्कृतिक विरासत:

किशनगढ़ गांव के प्रवेश द्वार पर एक शिलालेख है: “मुजहरा लहर दे शहीदां दी याद नु समरपित” (मुजहरा आंदोलन के शहीदों को समर्पित)।

किशनगढ़ में एक स्मारक और हॉल का निर्माण उस भूमि पर किया गया है जो पहले बिस्वेदारों की थी।

प्रतिरोध का प्रतीक एवं आधुनिक प्रासंगिकता:

पंजाब के कृषि इतिहास में मुज़हरा आंदोलन लचीलेपन और न्याय का प्रतीक बना हुआ है।

इस आंदोलन का उल्लेख अक्सर हाल के किसान विरोध प्रदर्शनों, विशेष रूप से  2020-21 के विवादास्पद कृषि कानूनों के खिलाफ किसान विरोध प्रदर्शन के दौरान किया गया है।

भारत में किसान आंदोलन

किसान आंदोलन

अवधि

क्षेत्र

कारण

प्रमुख नेता

नतीजा

नील विद्रोह

1859-1860

बंगाल

ब्रिटिश बागान मालिकों द्वारा शोषण के कारण किसानों को कम दामों पर नील की खेती करने के लिए मजबूर होना पड़ा

दिगंबर विश्वास, बिष्णु विश्वास

ब्रिटिश सरकार ने इंडिगो आयोग की रिपोर्ट (1860) पारित की, जिसके परिणामस्वरूप नील की खेती में गिरावट आई।

दक्कन दंगे

1875

महाराष्ट्र (पुणे, अहमदनगर, सतारा)

साहूकारों से उच्च ब्याज दर पर ऋण, भूमि अधिग्रहण

स्थानीय किसान समूह

अंग्रेजों ने साहूकारी प्रथाओं को विनियमित करने के लिए डेक्कन कृषक राहत अधिनियम (1879) लागू किया।

चंपारण सत्याग्रह

1917

बिहार

तिनकठिया प्रणाली के तहत यूरोपीय बागान मालिकों द्वारा नील की जबरन खेती

महात्मा गांधी, राजकुमार शुक्ल

अंग्रेजों ने तिनकठिया प्रणाली को समाप्त कर दिया, जिससे किसानों को अपनी पसंद की फसल उगाने की स्वतंत्रता मिल गई।

खेड़ा सत्याग्रह

1918

गुजरात

अकाल के कारण किसान कर चुकाने में असमर्थ; कर निलंबन की मांग

महात्मा गांधी, सरदार पटेल

सरकार ने किसानों को कर में राहत दी।

बारडोली सत्याग्रह

1928

गुजरात

ब्रिटिश सरकार द्वारा भूमि राजस्व में अनुचित वृद्धि

सरदार वल्लभभाई पटेल

सरकार ने कर वृद्धि वापस ले ली और जब्त की गई जमीनें वापस कर दीं।

तेभागा आंदोलन

1946-1947

बंगाल

बटाईदारों (बरगादारों) ने जमींदारों को दिए जाने वाले मौजूदा आधे हिस्से के बजाय उपज का दो-तिहाई हिस्सा मांगा

किसान सभा (सीपीआई के नेतृत्व वाले), बेनॉय चौधरी, हरे कृष्ण कोनार

बंगाल सरकार ने बटाईदारों के अधिकारों की रक्षा के लिए बरगादारी अधिनियम (1950) पारित किया।

तेलंगाना विद्रोह

1946-1951

हैदराबाद (तेलंगाना)

ज़मींदारों और भूस्वामियों द्वारा सामंती उत्पीड़न; बंधुआ मज़दूरी और उच्च लगान

भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (सीपीआई), पी. सुंदरय्या, रवि नारायण रेड्डी

भूमि पुनर्वितरण नीतियां लागू की गईं, लेकिन अंततः 1951 में भारतीय सेना द्वारा आंदोलन को दबा दिया गया।

मुज़हरा आंदोलन (पेप्सू काश्तकार आंदोलन)

1930-1952

पंजाब (पटियाला, बरनाला, मनसा, संगरूर, आदि)

काश्तकार किसानों (मुजहराओं) ने भूमि स्वामित्व अधिकारों के लिए बिस्वेदारों (जमींदारों) के खिलाफ लड़ाई लड़ी

जागीर सिंह जोगा, बूटा सिंह, तेजा सिंह सुतंतर

पीईपीएसयू में भूमि सुधारों ने किरायेदार किसानों को मालिकाना हक प्रदान किया।

नक्सलबाड़ी विद्रोह

1967

पश्चिम बंगाल

भूमिहीन किसानों ने जमींदारों से भूमि के पुनर्वितरण की मांग की

चारु मजूमदार, कानू सान्याल

इस आंदोलन के कारण भारत में नक्सलवादी/माओवादी विद्रोह का उदय हुआ।

भरतपुर किसान आंदोलन

1925

राजस्थान

जागीरदारों (सामंती जमींदारों) द्वारा उत्पीड़न और उच्च भूमि राजस्व

नेमी चंद जैन, किसान सभा

स्वतंत्रता के बाद जागीरदारी प्रथा के उन्मूलन में योगदान दिया।

एका आंदोलन

1921

उतार प्रदेश।

मकान मालिकों द्वारा उच्च किराया मांग, राजस्व संग्रह में भ्रष्टाचार

मदारी पासी, सहोदरदेव

ब्रिटिश सेना द्वारा आंदोलन को दबा दिया गया।

पगड़ी संभाल जट्टा आंदोलन

1907

पंजाब

ब्रिटिश शासन के तहत बढ़ी हुई भूमि राजस्व के खिलाफ विरोध प्रदर्शन

भगत सिंह के चाचा अजीत सिंह, किशन सिंह

अंग्रेजों ने बढ़ी हुई राजस्व मांग वापस ले ली।

मालाबार विद्रोह (मोपला विद्रोह)

1921

केरल

हिंदू जमींदारों और ब्रिटिश प्रशासन के खिलाफ मुस्लिम किरायेदारों की कृषि संबंधी शिकायतें

वरियानकुनाथ कुंजाहम्मद हाजी, अली मुसलियार

अंग्रेजों द्वारा दमन; व्यापक हिंसा और दमन का कारण बना।

बिजोलिया आंदोलन

1897-1941

राजस्थान

किसानों ने उच्च करों और दमनकारी सामंती शुल्कों का विरोध किया

सीताराम दास, विजय सिंह पथिक

अंग्रेजों ने करों में कमी की; जिसका प्रभाव बाद में किसान संघर्षों पर पड़ा।

पबना विद्रोह

1873-1876

बंगाल

ज़मींदारों ने अवैध रूप से लगान बढ़ाया और किसानों को बेदखल किया

किसान सभा, शंभू पाल

बंगाल काश्तकारी अधिनियम (1885) पारित हुआ, जिससे जमींदारी शोषण पर रोक लगी।

बकाश्त आंदोलन

1930 के दशक

बिहार

जमींदारों ने किसानों से अवैध रूप से बकाश्त (स्व-खेती) भूमि वापस ले ली

स्वामी सहजानंद सरस्वती

स्वतंत्रता के बाद बिहार में भूमि सुधार की मांग मजबूत हुई।

See also  भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस वार्षिक अधिवेशन

 

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