प्लासी का युद्ध
प्लासी का युद्ध 23 जून, 1757 ई. को अंग्रेजों और बंगाल के तत्कालीन नवाब सिराजुद्दौला के मध्य प्लासी नामक स्थान पर हुआ था। जिसमें अंग्रेजी सेना का नेतृत्व रॉबर्ट क्लाइव तथा नवाब की सेना का नेतृत्व मीर जाफर ने किया था। प्लासी युद्ध के परिणाम स्वरूप भारत में अंग्रेज शक्ति और प्रबल हो गयी, जिसने भारत के स्वरूप को ही बदल दिया और एक ऐसे अंग्रेजी शासन का उदय हुआ, जिसने भारत पर लगभग 200 वर्षों तक राज किया।
प्रसिद्ध बंगाली कवि ‘नवीन चंद्र सेन’ के शब्दों में –“प्लासी की लड़ाई के बाद भारत में अनंत अंधकारमयी रात्रि का आरम्भ हुआ।”
17 वीं-18 वीं शताब्दी में भारत में यूरोपीय कंपनियों का आगमन हुआ जिनका भारत में आने का मकसद व्यापार करना था, परन्तु अपनी बढ़ती महत्वकांक्षाओं के कारण उन्होंने भारत के विभिन्न क्षेत्रों पर राज करना शुरू कर दिया। औरंगजेब की मृत्यु के पश्चात मुग़ल साम्राज्य की नींव कमजोर पड़ गयी। जिसका फायदा उठाकर अलीवर्दी खाँ नामक व्यक्ति ने 1740 ई. में बंगाल को मुग़ल साम्राज्य से मुक्त घोषित कर, अपने आप को वहाँ का नवाब घोषित किया। मुगलों की शक्ति क्षीण होते देख अंग्रेजों ने भी इसका फायदा उठाया और भारत में जगह-जगह किले बंदी कर अपना अधिपत्य स्थापित करने की कोशिश की।
09 अप्रैल, 1756 ई. में अलीवर्दी खाँ की मृत्यु के पश्चात उसकी सबसे छोटी पुत्री का पुत्र सिराजुद्दौला नवाब बना। तब बंगाल का माहौल अंग्रेजों और फ्रांसीसियों के आपसी द्वंद्व के कारण काफी अशांत था। अंग्रेजों और फ्रांसीसियों ने जगह-जगह किले बंदी करनी भी शुरू कर दी थी। इसके कारण सिराजुद्दौला काफी चिंतित था इसलिए सिराजुद्दौला ने अंग्रेज़ों और फ्रांसीसियों को तुरंत किले बंदी रोकने का आदेश दिया।फ्रांसीसियों ने तो नवाब का आदेश मानते हुए तत्काल प्रभाव से अपने द्वारा की जा रही किले बंदी को रोक दिया परन्तु अंग्रेजों ने नवाब के आदेश की अवहेलना करते हुए अपनी किले बंदी को जारी रखा।
अंग्रेजों की ऐसी गतिविधियों को देख सिराजुद्दौला ने अंगेजों पर पुनः आक्रमण करने की तैयारी शुरू कर दी। वहीँ दूसरी तरफ अंग्रेजों ने नवाब सिराजुद्दौला के सेनापति मीर जाफर को बंगाल का नवाब बनाने का लालच देकर अपनी तरफ कर लिया और मीर जाफर सिराजुद्दौला से विश्वासघात करने को तैयार हो गया।
प्लासी युद्ध में अंग्रेजों की जीत के फलस्वरूप व अंग्रेजों द्वारा मीरजाफर से किये गए वादे के अनुसार मीरजाफर को बंगाल का अगला नवाब बनाया गया। बंगाल का नवाब बनते ही मीर जाफर ने अंग्रेजो को 24 परगना की जमींदारी सौंप दी और बंगाल, ओडिशा तथा बिहार पर अंग्रेजो की ईस्ट इंडिया कंपनी को मुफ्त व्यापार करने की छूट प्रदान कर दी। मीर जाफर अंग्रेजों के हाथों की कठपुतली मात्र था, अंग्रेज जो चाहते वह उससे करवाते थे। जब मीर जाफर अंग्रेजों की मनमानी और मांगों को पूर्ण न कर सका तो उसको बंगाल के नवाब की गद्दी से हटाकर मीर कासिम को बंगाल का नवाब बनाया गया।
मुग़ल साम्राज्य (1526-1707)
पानीपत के मैदान में 21 अप्रैल, 1526 को इब्राहिम लोदी और चुगताई तुर्क जलालुद्दीन बाबर के बीच युद्ध लड़ा गया, जिसमें लोदी वंश के अंतिम शासक इब्राहिम लोदी को पराजित कर खानाबदोश[1] बाबर ने तीन शताब्दियों से सत्तारूढ़ तुर्क अफगानी-सुल्तानों की दिल्ली सल्तनत का तख्ता पलट कर दिया और मुग़ल साम्राज्य और मुग़ल सल्तनत की नींव रखी। गुप्त वंश के पश्चात मध्य भारत में केवल मुग़ल साम्राज्य ही ऐसा साम्राज्य था, जिसका एकाधिकार हुआ था।
बाबर – (1526-1530 ई०)
बाबर का जन्म छोटी सी रियासत ‘फरगना‘ में 1483 ई० में हुआ था। बाबर अपने पिता की मृत्यु के पश्चात मात्र 11 वर्ष की आयु में ही फरगना का शासक बन गया था। बाबर को भारत आने का निमंत्रण पंजाब के सूबेदार दौलत खाँ लोदी और इब्राहिम लोदी के चाचा आलम खाँ लोदी ने भेजा था।
पानीपत का प्रथम युद्ध बाबर का भारत पर उसके द्वारा किया गया पांचवा आक्रमण था, जिसमें उसने इब्राहिम लोदी को हराकर विजय प्राप्त की थी और मुग़ल साम्राज्य की स्थापना की थी। उसकी विजय का मुख्य कारण उसका तोपखाना और कुशल सेना प्रतिनिधित्व था। भारत में तोप का सर्वप्रथम प्रयोग बाबर ने ही किया था। पानीपत के इस प्रथम युद्ध में बाबर ने उज्बेकों की ‘तुलगमा युद्ध पद्धति‘ तथा तोपों को सजाने के लिये ‘उस्मानी विधि‘ जिसे ‘रूमी विधि‘ भी कहा जाता है, का प्रयोग किया था। पानीपत के युद्ध में विजय की खुशी में बाबर ने काबुल के प्रत्येक निवासी को एक चाँदी का सिक्का दान में दिया था। अपनी इसी उदारता के कारण बाबर को ‘कलन्दर‘ भी कहा जाता था।
पानीपत के युद्ध के बाद बाबर का दूसरा महत्वपूर्ण युद्ध राणा सांगा के विरुद्ध 17 मार्च, 1527 ई० में आगरा से 40 किमी दूर खानवा नामक स्थान पर हुआ था। जिसमें विजय प्राप्त करने के पश्चात बाबर ने गाज़ी की उपाधि धारण की थी। इस युद्ध के लिये अपने सैनिकों का मनोबल बढ़ाने के लिये बाबर ने ‘जिहाद‘[2] का नारा दिया था। साथ ही मुसलमानों पर लगने वाले कर ‘तमगा‘ की समाप्ति की घोषणा की थी, यह एक प्रकार का व्यापारिक कर था। राजपूतों के विरुद्ध इस ‘खानवा के युद्ध‘ का प्रमुख कारण बाबर द्वारा भारत में ही रुकने का निश्चय था।
बाबर ने अपनी आत्मकथा ‘बाबरनामा‘ का निर्माण किया था, जिसे तुर्की में ‘तुजुके बाबरी‘ कहा जाता है। जिसे बाबर ने अपनी मातृभाषा चागताई तुर्की में लिखा है। इसमें बाबर ने तत्कालीन भारतीय दशा का विवरण दिया है। जिसका फारसी अनुवाद अब्दुर्रहीम खानखाना ने किया है और अंग्रेजी अनुवाद श्रीमती बेबरिज द्वारा किया गया है।
बाबर ने ‘रिसाल-ए-उसज‘ की रचना की थी, जिसे ‘खत-ए-बाबरी‘ भी कहा जाता है। बाबर ने एक तुर्की काव्य संग्रह ‘दिवान‘ का संकलन भी करवाया था। बाबर ने ‘मुबइयान‘ नामक पद्य शैली का विकास भी किया था।
बाबर ने संभल और पानीपत में मस्जिद का निर्माण भी करवाया था। साथ ही बाबर के सेनापति मीर बाकी ने अयोध्या में मंदिरों के बीच 1528 से 1529 के मध्य एक बड़ी मस्जिद का निर्माण करवाया था, जिसे बाबरी मस्जिद[3] के नाम से जाना गया।
बाबर के चार पुत्र हिन्दाल, कामरान, अस्करी और हुमायूँ थे। जिनमें हुमायूँ सबसे बड़ा था फलस्वरूप बाबर की मृत्यु के पश्चात उसका सबसे बड़ा पुत्र हुमायूँ अगला मुग़ल शासक बना।
- खानाबदोश – मानवों का ऐसा समुदाय या समूह, जो एक ही स्थान पर रहने के बजाय, एक स्थान से दूसरे स्थान पर निरन्तर भ्रमणशील रहते हैं।
- जिहाद – इस्लाम की रक्षा के लिये किए जाने वाले धर्म युद्ध को जिहाद कहा जाता है।
- बाबरी मस्जिद – यह एक विवादास्पद घटना है, जोकि वर्तमान में भी विवादों में है। इस घटना ने दो धर्मों के मध्य झगडे को पैदा किया। अयोध्या में राम मंदिर था या बाबरी मस्जिद इसको लेकर वर्तमान सुप्रीम कोर्ट में केस काई वर्षों तक चला है, जिसके बाद कोर्ट ने माना है कि वहां राम मंदिर स्थित था।
मराठा साम्राज्य
छत्रपति शिवाजी
शिवाजी का जन्म पूना के निकट शिवनेर के किले में 20 अप्रैल, 1627 को हुआ था। शिवाजी शाहजी भोंसले और जीजाबाई के पुत्र थे। शिवाजी को मराठा साम्राज्य का संस्थापक कहा जाता है। शिवाजी महाराज ने बीजापुर सल्तनत से मराठा लोगो को रिहा करने का बीड़ा उठा रखा था और मुगलों की कैद से उन्होंने लाखो मराठाओ को आज़ादी दिलवाई। इसके बाद उन्होंने धीरे-धीरे मुग़ल साम्राज्य को ख़त्म करना शुरू किया और हिंदवी स्वराज्य की स्थापना करने लगे।
1656 ई. में रायगढ़ को उन्होंने अपने साम्राज्य की राजधानी घोषित की और एक आज़ाद मराठा साम्राज्य की स्थापना की। इसके बाद अपने साम्राज्य को मुग़ल से बचाने के लिए वे लगातार लड़ते रहे। और अपने राज्य के विस्तार का आरंभ 1643 ई. में बीजापुर के सिंहगढ़ किले को जीतकर किया। इसके पश्चात 1646 ई. में तोरण के किले पर भी शिवाजी ने अपना अधिपत्य स्थापित कर लिया। शिवाजी की शक्ति को दबाने के लिए बीजापुर के शासक ने सरदार अफजल खां को भेजा। शिवाजी ने 1659 ई. में अफजल खां को पराजित कर उसकी हत्या कर दी। शिवाजी की बढती शक्ति से घबराकर औरंगजेब ने शाइस्ता खां को दक्षिण का गवर्नर नियुक्त किया। शिवाजी ने 1663 ई. में शाइस्ता खां को पराजित किया। जयसिंह के नेतृत्व में पुरंदर के किले पर मुगलों की विजय तथा रायगढ़ की घेराबंदी के बाद जून 1665 में मुगलों और शिवाजी के बीच पुरंदर की संधि हुई। 1670 ई. में शिवाजी ने मुगलों के विरुद्ध अभियान छेड़कर पुरंदर की संधि द्वारा खोये हुए किले को पुनः जीत लिया। 1670 ई. में ही शिवाजी ने सूरत को लूटा तथा मुगलों से चौथ की मांग की।
1674 में स्थापित नव मराठा साम्राज्य के छत्रपति के रूप में उनका राज्याभिषेक किया गया। अपने राज्याभिषेक के बाद शिवाजी का अंतिम महत्वपूर्ण अभियान 1676 ई. में कर्नाटक अभियान था।
12 अप्रैल, 1680 को शिवाजी की मृत्यु हो गई। उनकी मृत्यु के समय उन्होंने 300 किले साथ, तक़रीबन 40,000 की घुड़सवार सेना और 50000 पैदल सैनिको की फ़ौज बना रखी थी और साथ पश्चिमी समुद्री तट तक एक विशाल नौसेना का प्रतिष्ठान भी कर रखा था। समय के साथ-साथ इस साम्राज्य का विस्तार भी होता गया और इसी के साथ इसके शासक भी बदलते गये, शिवाजी महाराज के बाद उनके पोतो ने मराठा साम्राज्य को संभाला और फिर उनके बाद 18 वी शताब्दी के शुरू में पेशवा मराठा साम्राज्य को सँभालने लगे।
शिवाजी महाराज के दो बेटे थे : संभाजी और राजाराम। संभाजी महाराज उनका बड़ा बेटा था, जो दरबारियों के बीच काफी प्रसिद्ध था। 1681 में संभाजी महाराज ने मराठा साम्राज्य का ताज पहना और अपने पिता की नीतियों को अपनाकर वे उन्ही की राह में आगे चल पड़े। संभाजी महाराज ने शुरू में ही पुर्तगाल और मैसूर के चिक्का देवा राया को पराजित कर दिया था।
इसके बाद किसी भी राजपूत-मराठा गठबंधन को हटाने के लिए 1681 में औरंगजेब ने खुद दक्षिण की कमान अपने हात में ले ली। अपने महान दरबार और 5,000,00 की विशाल सेना के साथ उन्होंने मराठा साम्राज्य के विस्तार की शुरुआत की और बीजापुर और गोलकोंडा की सल्तनत पर भी मराठा साम्राज्य का ध्वज लहराया। अपने 8 साल के शासनकाल में उन्होंने मराठाओ को औरंगजेब के खिलाफ एक भी युद्ध या गढ़ हारने नही दिया।
1689 के आस-पास संभाजी महाराज ने अपने सहकारियो को रणनीतिक बैठक के लिए संगमेश्वर में आमंत्रित किया, ताकि मुग़ल साम्राज्य को हमेशा के लिए हटा सके। लेकिन गनोजी शिर्के और औरंगजेब के कमांडर मुकर्रब खान ने संगमेश्वर में जब संभाजी महाराज बहुत कम लोगो के साथ होंगे तब आक्रमण करने की बारीकी से योजना बन रखी थी। इससे पहले औरंगजेब कभी भी संभाजी महाराज को पकड़ने में सफल नही हुआ था।
राजाराम (1689 ई. से 1700 ई.)
शंभाजी की मृत्यु के बाद राजाराम को मराठा साम्राज्य का छत्रपति घोषित किया गया। राजाराम मुग़लोँ के आक्रमण के भय से अपनी राजधानी रायगढ़ से जिंजी ले गया। 1698 तक जिंजी मुगलोँ के विरुद्ध मराठा गतिविधियो का केंद्र रहा। 1699 में सतारा, मराठों की राजधानी बना। राजाराम स्वयं को शंभाजी के पुत्र शाहू का प्रतिनिधि मानकर गद्दी पर कभी नहीँ बैठा। राजा राम के नेतृत्व में मराठों ने मुगलोँ के विरुद्ध स्वतंत्रता के लिए अभियान शुरु किया जो 1700 ई. तक चलता रहा। राजा राम की मृत्यु के बाद 1700 ई. में उसकी विधवा पत्नी तारा बाई ने अपने चार वर्षीय पुत्र शिवाजी द्वितीय को गद्दी पर बैठाया और मुगलो के विरुद्ध संघर्ष जारी रखा।
शिवाजी द्वितीय (1700 ई. से 1707 ई.)
राजाराम की विधवा पत्नी तारा बाई ने अपने चार वर्षीय पुत्र शिवाजी द्वितीय को गद्दी पर बैठाया और मुगलो के विरुद्ध संघर्ष जारी रखा। उन्होंने ही कुछ समय तक मुग़लों के खिलाफ मराठा साम्राज्य की कमान संभाली और 1705 से उन्होंने नर्मदा नदी भी पार कर दी और मालवा में प्रवेश कर लिया, ताकि मुग़ल साम्राज्य पर अपना प्रभुत्व जमा सके।
छत्रपति शाहू महाराज (1707 ई. से )
1707 में औरंगजेब की मृत्यु के बाद, संभाजी महाराज के बेटे (शिवाजी के पोते) को मराठा साम्राज्य के नए शासक बहादुर शाह प्रथम को रिहा कर दिया लेकिन उन्हें इस परिस्थिति में ही रिहा किया गया था की वे मुग़ल कानून का पालन करेंगे। रिहा होते ही शाहू ने तुरंत मराठा सिंहासन की मांग की और अपनी चाची ताराबाई और उनके बेटे को चुनौती दी। इसके चलते एक और मुग़ल-मराठा युद्ध की शुरुआत हो गयी।
1707 में सतारा और कोल्हापुर राज्य की स्थापना की गयी क्योकि उत्तराधिकारी के चलते मराठा साम्राज्य में ही वाद-विवाद होने लगे थे। लेकिन अंत में शाहू को ही मराठा साम्राज्य का नया छत्रपति बनाया गया। लेकिन उनकी माता अभी भी मुग़लों के ही कब्जे में थी लेकिन अंततः जब मराठा साम्राज्य पूरी तरह से सशक्त हो गया तब शाहू अपनी माँ को भी रिहा करने में सफल हुए।
पेशवाओं के अधीन मराठा साम्राज्य
इस युग में, पेशवा चित्पावन परिवार से संबंध रखते थे, जो मराठा सेनाओ का नियंत्रण करते थे और बाद में वही मराठा साम्राज्य के शासक बने। अपने शासनकाल में पेशवाओ ने भारतीय उपमहाद्वीप के ज्यादातर भागो पर अपना प्रभुत्व बनाए रखा था।
बालाजी विश्वनाथ (1713 ई. से 1720 ई.)
बालाजी विश्वनाथ एक ब्राहमण थे। बालाजी विश्वनाथ ने अपना राजनीतिक जीवन एक छोटे से राजस्व अधिकारी के रुप में शुरु किया था। 1713 में शाहू ने पेशवा बालाजी विश्वनाथ की नियुक्ती की थी। उसी समय से पेशवा का कार्यालय ही सुप्रीम बन गए और शाहूजी महाराज मुख्य व्यक्ति बने। उनकी पहली सबसे बड़ी उपलब्धि 1714 में कन्होजो अंग्रे के साथ लानावल की संधि का समापन करना थी, जो की पश्चिमी समुद्र तट के सबसे शक्तिशाली नौसेना मुखिया में से एक थे। बाद में वे मराठा में ही शामिल हो गये। 1719 में मराठाओ की सेना ने दिल्ली पर हल्ला बोला और डेक्कन के मुग़ल गवर्नर सईद हुसैन हाली के मुग़ल साम्राज्य को परास्त किया। तभी उस समय पहली बार मुग़ल साम्राज्य को अपनी कमजोर ताकत का अहसास हुआ।
बाजीराव प्रथम (1720 ई. – 1740 ई.)
बालाजी विश्वनाथ की 1720 में मृत्यु के बाद उसके पुत्र बाजीराव प्रथम को शाहू ने पेशवा नियुक्त किया। बाजीराव प्रथम के पेशवा काल में मराठा साम्राज्य की शक्ति चरमोत्कर्ष पर पहुँच गई। 1724 में शूकर खेड़ा के युद्ध में मराठोँ की मदद से निजाम-उल-मुल्क ने दक्कन में मुगल सूबेदार मुबारिज खान को परास्त कर एक स्वतंत्र राज्य की स्थापना की। निजाम-उल-मुल्क ने अपनी स्थिति मजबूत करने के बाद मराठोँ के विरुद्ध कार्रवाई शुरु कर दी। बाजीराव प्रथम ने 1728 में पालखेड़ा के युद्ध में निजाम-उल-मुल्क को पराजित किया। 1728 में ही निजाम-उल-मुल्क बाजीराव प्रथम के बीच एक मुंशी शिवगांव की संधि हुई जिसमे निजाम ने मराठोँ को चौथ एवं सरदेशमुखी देना स्वीकार किया। बाजीराव प्रथम ने शिवाजी की गुरिल्ला युद्ध प्रणाली को अपनाया। 1739 ई. में बाजीराव प्रथम ने पुर्तगालियों से सालसीट तथा बेसीन छीन लिया। बालाजी बाजीराव प्रथम ने ग्वालियर के सिंधिया, गायकवाड़, इंदौर के होलकर और नागपुर के भोंसले शासकों को सम्मिलित कर एक मराठा मंडल की स्थापना की। 1740 तक अपनी मृत्यु से पहले उन्होंने कुल 41 युद्ध में लढाई की और उनमे से वे एक भी युद्ध नही हारे।
बालाजी बाजीराव (1740 ई. – 1761 ई.)
बाजीराव प्रथम की मृत्यु के बाद बालाजी बाजीराव नया पेशवा बना। नाना साहेब के नाम से भी जाना जाता है।1750 में रघुजी भोंसले की मध्यस्थता से राजाराम द्वितीय के मध्य संगौला की संधि हुई। इस संधि के द्वारा पेशवा मराठा साम्राज्य का वास्तविक प्रधान बन गया। छत्रपति नाममात्र का राजा रह गया। बालाजी बाजीराव पेशवा काल में पूना मराठा राजनीति का केंद्र हो गया। बालाजी बाजीराव के शासनकाल में 1761 ई. पानीपत का तृतीय युद्ध हुआ। यह युद्ध मराठों अहमद शाह अब्दाली के बीच हुआ।
पानीपत का तृतीय युद्ध दो कारण –
- प्रथम नादिरशाह की भांति अहमद शाह अब्दाली भी भारत को लूटना चाहता था।
- दूसरा, मराठे हिंदू पद पादशाही की भावना से प्रेरित होकर दिल्ली पर अपना प्रभाव स्थापित करना चाहते थे।
पानीपत के युद्ध में बालाजी बाजीराव ने अपने नाबालिग बेटे विश्वास राव के नेतृत्व में एक शक्तिशाली सेना भेजी किन्तु वास्तविक सेनापति विश्वास राव का चचेरा भाई सदाशिवराव भाऊ था। इस युद्ध में मराठोँ की पराजय हुई और विश्वास राव और सदाशिवराव सहित 28 हजार सैनिक मारे गए।
माधव राव (1761 ई. – 1772 ई.)
पानीपत के तीसरे युद्ध में मराठोँ की पराजय के बाद माधवराव पेशवा बनाया गया। माधवराव की सबसे बड़ी सफलता मालवा और बुंदेलखंड की विजय थी। माधव ने 1763 में उद्गीर के युद्ध में हैदराबाद के निजाम को पराजित किया। माधवराव और निजाम के बीच राक्षस भवन की संधि हुई। 1771 ई. में मैसूर के हैदर अली को पराजित कर उसे नजराना देने के लिए बाध्य किया। माधवराव ने रुहेलों, राजपूतों और जाटों को अधीन लाकर उत्तर भारत पर मराठोँ का वर्चस्व स्थापित किया। 1771 में माधवराव के शासनकाल में मराठों निर्वासित मुग़ल बादशाह शाहआलम को दिल्ली की गद्दी पर बैठाकर पेंशन भोगी बना दिया। नवंबर 1772 में माधवराव की छय रोग से मृत्यु हो गई।
नारायण राव (1772 ई. – 1774 ई.)
माधवराव की अपनी कोई संतान नहीँ थी। अतः माधवराव की मृत्यु के उपरांत उसके छोटे भाई नारायणराव पेशवा बना। नारायणराव का अपने चाचा राघोबा से गद्दी को लेकर लंबे समय तक संघर्ष चला जिसमें अंततः राघोबा ने 1774 में नारायणराव की हत्या कर दी।
माधव नारायण (1774 ई. – 1796 ई.)
1774 ई. में पेशवा नारायणराव की हत्या के बाद उसके पुत्र माधवराव नारायण को पेशवा की गद्दी पर बैठाया गया। इसके समय में नाना फड़नवीस के नेतृत्व में एक काउंसिल ऑफ रीजेंसी का गठन किया गया था, जिसके हाथों में वास्तविक प्रशासन था। इसके काल में प्रथम आंग्ल–मराठा युद्ध हुआ। 17 मई 1782 को सालबाई की संधि द्वारा प्रथम आंग्ल मराठा युद्ध समाप्त हो गया। यह संधि ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी और मराठा साम्राज्य के बीच हुई थी। टीपू सुल्तान को 1792 में तथा हैदराबाद के निजाम को 1795 में परास्त करने के बाद मराठा शक्ति एक बार फिर पुनः स्थापित हो गई।
बाजीराव द्वितीय (1796 ई. से- 1818 ई.)
माधवराव नारायण की मृत्यु के बाद राघोबा का पुत्र बाजीराव द्वितीय पेशवा बना। इसकी अकुशल नीतियोँ के कारण मराठा संघ में आपसी मतभेद उत्पन्न हो गया। 1802 ई. बाजीराव द्वितीय के बेसीन की संधि के द्वारा अंग्रेजो की सहायक संधि स्वीकार कर लेने के बाद मराठोँ का आपसी विवाद पटल पर आ गया। सिंधिया तथा भोंसले ने अंग्रेजो के साथ की गई इस संधि का कड़ा विरोध किया। द्वितीय और तृतीय आंग्ल मराठा युद्ध बाजीराव द्वितीय के शासन काल में हुआ। द्वितीय आंग्ल मराठा युद्ध में सिंधिया और भोंसले को पराजित कर अंग्रेजो ने सिंधिया और भोंसले को अलग-अलग संधि करने के लिए विवश किया। 1803 में अंग्रेजो और भोंसले के साथ देवगांव की संधि कर कटक और वर्धा नदी के पश्चिम का क्षेत्र ले लिया। अंग्रेजो ने 1803 में ही सिन्धयों से सुरजी-अर्जनगांव की संधि कर उसे गंगा तथा यमुना के क्षेत्र को ईस्ट इंडिया कंपनी को देने के लिए बाध्य किया। 1804 में अंग्रेजों तथा होलकर के बीच तृतीय आंग्ल-मराठा युद्ध हुआ, जिसमें पराजित होकर होलकर ने अंग्रेजो के साथ राजपुर पर घाट की संधि की। मराठा शक्ति का पतन 1817-1818 ई. में हो गया जब स्वयं पेशवा बाजीराव द्वितीय ने अपने को पूरी तरह अंग्रेजो के अधीन कर लिया। बाजीराव द्वितीय द्वारा पूना प्रदेश को अंग्रेजी राज्य में विलय कर पेशवा पद को समाप्त कर दिया गया।
1857 की क्रांति – 1857 का विद्रोह
भारत में ईस्ट इंडिया कम्पनी काल में ब्रिटिश उपनिवेशवादी शासन की स्थापना के केंद्र में सेना की भूमिका महत्वपूर्ण थी। गवर्नर जनरल के तौर पर वारेन हेस्टिंग्स के शासन काल के दौरान ईस्ट इंडिया कम्पनी द्वारा राज्यों के क्रमश: अधिग्रहण से उसके क्षेत्र का, साथ ही सेना का लगातार विस्तार हो रहा था। ब्रिटिश सेना में 80 प्रतिशत से अधिक भारतीय मूल के लोग ही नियुक्त थे। यूरोपीय सैनिकों के विपरीत उन्हें सिपाही का दर्जा मिला था। अभी तक हम प्लासी और बक्सर की लड़ाई में इन सिपाहियों की भक्ति ईस्ट इंडिया कम्पनी के प्रति देख चुके हैं।
1857 की क्रांति (Revolt of 1857)
1857 की क्रांति (1857 ki kranti in hindi) या 1857 का विद्रोह कोई आकस्मिक घटना नहीं थी, अपितु 1857 की क्रांति अनेक कारणों का परिणाम थी, जिसके कई राजनीतिक, आर्थिक, सामाजिक, धार्मिक, प्रशासनिक और सैनिक कारण थे, जो इस प्रकार थे-
1857 की क्रांति के कारण
राजनीतिक कारण
- डलहौज़ी की साम्राज्यवादी नीति :- लॉर्ड डलहौजी (1848 – 56) ने भारत में अपना साम्राज्य विस्तार करने के लिए विभिन्न अन्यायपूर्ण तरीके अपनाए। अतः देशी रियासतों एवं नवाबों में कंपनी के विरूद्ध गहरा असंतोष फैला। उसने लैप्स के सिद्धांत को अपनाया। इस सिद्धांत का तात्पर्य है, “जो देशी रियासतें कंपनी के अधीन हैं, उनको अपने उत्तराधिकारियों के बारे में ब्रिटिश सरकार के मान्यता व स्वीकृति लेनी होगी। यदि रियासतें ऐसा नहीं करेंगी, तो ब्रिटिश सरकार उत्तराधिकारियों को अपनी रियासतों का वैद्य शासक नहीं मानेंगी।” इस नीति के आधार पर डलहौजी ने निःसन्तान राजाओं के गोद लेने पर प्रतिबन्ध लगा दिया तथा इस आधार पर उसने सतारा, जैतपुर, सम्भलपुर, बाघट, उदयपुर, झाँसी, नागपुर आदि रियासतों को ब्रिटिश साम्राज्य में मिला लिया। उसने अवध के नवाब पर कुशासन का आरोप लगाते हुए 1856 ई. में अवध का ब्रिटिश साम्राज्य में विलय कर लिया। डलहौज़ी की साम्राज्यवादी नीति ने भारतीय नरेशों में ब्रिटिशों के प्रति गहरा असंतोष एवं घृणा की भावना उत्पन्न कर दी। इसके साथ ही राजभक्त लोगों को भी अपने अस्तित्व पर संदेह होने लगा। वस्तुतः डलहौज़ी की इस नीति ने भारतीयों पर बहुत गहरा प्रभाव डाला। इन परिस्थितियों में ब्रिटिश साम्राज्य के विरूद्ध विद्रोह एक मानवीय आवश्यकता बन गया था।
- समकालीन परिस्थितियाँ :- भारतीय लोग पहले ब्रिटिश सैनिकों को अपराजित मानते थे, किंतु क्रिमिया एवं अफ़ग़ानिस्तान के युद्धों में ब्रिटिशों की जो दुर्दशा हुई, उसने भारतीयों के इस भ्रम को मिटा दिया। इसी समय रूस द्वारा क्रीमिया की पराजय का बदला लेने के लिए भारत आक्रमण करने तथा भारत द्वारा उसका साथ देने की योजना की अफ़वाह फैली। इससे भारतीयों में विद्रोह की भावना को बल मिला। उन्होंने सोचा कि ब्रिटिशों के रूस के विरूद्ध व्यस्त होने के समय वे विद्रोह करके ब्रिटिशों को भारत से खदेड़ सकते हैं।
- मुग़ल सम्राट बहादुरशाह के साथ दुर्व्यवहार :- मुग़ल सम्राट बहादुरशाह भावुक एवं दयालु प्रकृति के थे। देशी राजा एवं भारतीय जनता अब भी उनके प्रति श्रद्धा रखते थे। ब्रिटिशों ने मुग़ल सम्राट बहादुरशाह के साथ बड़ा दुर्व्यवहार किया। अब ब्रिटिशों ने मुग़ल सम्राट को नज़राना देना एवं उनके प्रति सम्मान प्रदर्शित करना समाप्त कर दिया। मुद्रा पर से सम्राट का नाम हटा दिया गया।
- नाना साहब के साथ अन्याय :- लार्ड डलहौज़ी ने बाजीराव द्वितीय के दत्तक पुत्र नाना साहब के साथ भी बड़ा दुर्व्यवहार किया। नाना साहब की 8 लाख रुपये की पेन्शन बंद कर दी गई। फलतः नाना साहब ब्रिटिशों के शत्रु बन गए और उन्होंने 1857 के विप्लव का नेतृत्व किया।
आर्थिक कारण
- व्यापार का विनाश :- ब्रिटिशों ने भारतीयों का जमकर आर्थिक शोषण किया था। ब्रिटिशों ने भारत में लूट-मार करके धन प्राप्त किया तथा उसे इंग्लैंड भेज दिया। ब्रिटिशों ने भारत से कच्चा माल इंग्लैंड भेजा तथा वहाँ से मशीनों द्वारा माल तैयार होकर भारत आने लगा। इसके फलस्वरूप भारत दिन-प्रतिदिन निर्धन होने लगा। इसके कारण भारतीयों के उद्योग धंधे नष्ट होने लगे। इस प्रकार ब्रिटिशों ने भारतीयों के व्यापार पर अपना नियंत्रण स्थापित कर भारतीयों का आर्थिक शोषण किया।
- किसानों का शोषण :- ब्रिटिशों ने कृषकों की दशा सुधार करने के नाम पर स्थाई बंदोबस्त, रैय्यवाड़ी एवं महालवाड़ी प्रथा लागू की, किंतु इस सभी प्रथाओं में किसानों का शोषण किया गया तथा उनसे बहुत अधिक लगान वसूल किया गया। इससे किसानों की हालत बिगड़ती गई। समय पर कर न चुका पाने वाले किसानों की भूमि को नीलाम कर दिया जाता था।
- अकाल :- अंग्रेजों के शासन काल में बार-बार अकाल पड़े, जिसने किसानों की स्थिति और ख़राब हो गई।
- इनाम की जागीरें छीनना :- बैन्टिक ने इनाम में दी गई जागीरें भी छीन ली, जिससे कुलीन वर्ग के गई लोग निर्धन हो गए और उन्हें दर-दर की ठोकरें खानी पडीं। बम्बई के विख्यानघ इमाम आयोग ने 1852 में 20,000 जागीरें जब्त कर लीं। अतः कुलीनों में असन्तोष बढ़ने लगा, जो विद्रोह से ही शान्त हो सकता था।
- भारतीय उद्योगों का नाश तथा बेरोजगारी :- ब्रिटिशों द्वारा अपनाईं गई आर्थिक शोषण की नीति के कारण भारत के घरेलू उद्योग नष्ट होने लगे तथा देश में व्यापक रूप से बेरोज़गारी फैली।
सामाजिक कारण
- ब्रिटिशों द्वारा भारतीयों के सामाजिक जीवन में हस्तक्षेप :- ब्रिटिशों ने भारतीयों के सामाजिक जीवन में जो हस्तक्षेप किया, उनके कारण भारत की परम्परावादी एवं रूढ़िवादी जनता उनसे रूष्ट हो गई। लार्ड विलियम बैन्टिक ने सती प्रथा को गैर कानूनी घोषित कर दिया और लोर्ड कैनिंग ने विधवा विवाह की प्रथा को मान्यता दे दी। इसके फलस्वरूप जनता में गहरा रोष उत्पन्न हुआ। इसके अलावा 1856 ई. में पैतृत कसंपत्ति के सम्बन्ध मे एक कानून बनाकर हिन्दुओं के उत्तराधिकार नियमों में परिवर्तन किया गया। इसके द्वारा यह निश्चित किया गया कि ईसाई धर्म ग्रहण करने वाले व्यक्ति का अपनी पैतृक संपत्ति में हिस्सा बना रहेगा। रूढ़िवादी भारतीय अपने सामाजिक जीवन में ब्रिटिशों के इस प्रकार के हस्तक्षेप को पसन्द नहीं कर सकते थे। अतः उन्होंने विद्रोह का मार्ग अपनाने का निश्चय किया।
- पाश्चात्य संस्कृति को प्रोत्साहन :- ब्रिटिशों ने अपनी संस्कृति को प्रोत्साहन दिया तथा भारत में इसका प्रचार किया। उन्होंने युरोपीय चिकित्सा विज्ञान को प्रेरित किया, जो भारतीय चिकित्सा विज्ञान के विरूद्ध था। भारतीय जनता ने तार एवं रेल को अपनी सभ्यता के विरूद्ध समझा। ब्रिटिशों ने ईसाई धर्म को बहुत प्रोत्साहन दिया। स्कूल, अस्पताल, दफ़्तर एवं सेना ईसाई धर्म के प्रचार के केंद्र बन गए। अब भारतीयों को विश्वास हुआ कि ब्रिटिश उनकी संस्कृति को नष्ट करना चाहते हैं। अतः उनमें गहरा असंतोष उत्पन्न हुआ, जिसने क्रांति का रूप धारण कर लिया।
- पाश्चात्य शिक्षा का प्रभाव :- पाश्चात्य शिक्षा ने भारतीय समाज की मूल विशेषताओं को समाप्त कर दिया। आभार प्रदर्शन, कर्तव्यपालन, परस्पर सहयोग आदि भारतीय समाज की परम्परागत विशेषता थी, किन्तु ब्रिटिश शिक्षा ने इसे नष्ट कर दिया। पाश्चात्य सभ्यता ने भारतीयों के रहन-सहन, खान-पान, आचार-विचार, शिष्टाचार एवं व्यवहार में क्रान्तिकारी परिवर्तन किया। इससे भारतीय सामाजिक जीवन की मौलिकता समाप्त होने लगी। ब्रिटिशों द्वारा अपनी जागीरें छीन लेने से कुलीन नाराज थे, ब्रिटिशों द्वारा भारतीयों के सामाजिक जीवन में हस्तक्षेप करने से भारतीयों में यह आशंका उत्पन्न हो गई कि ब्रिटिश पाश्चात्य संस्कृति का प्रसार करना चाहते हैं। भारतीय रूढ़िवादी जनता ने रेल, तार आदि वैज्ञानिक प्रयोगों को अपनी सभ्यता के विरूद्ध माना।
- भारतीयों के प्रति भेद-भाव नीति :- ब्रिटिश भारतीयों को निम्न कोटि का मानते थे तथा उनसे घृणा करते थे। उन्होंने भारतीयों के प्रति भेद-भाव पूर्ण नीति अपनायी। भारतीयों को रेलों में प्रथम श्रेणी के डब्बे में सफर करने का अधिकार नहीं था। ब्रिटिशों द्वारा संचालित क्लबों तथा होटलों में भारतीयों को प्रवेश नहीं दिया जाता था।
धार्मिक कारण
- भारत में सर्वप्रथम ईसाई धर्म का प्रचार पुर्तगालियों ने किया था, किन्तु ब्रिटिशों ने इसे बहुत फैलाया। 1831 ई. में चार्टर एक्ट पारित किया गया, जिसके द्वारा ईसाई मिशनरियों को भारत में स्वतन्त्रतापूर्वक अपने धर्म का प्रचार करने की स्वतन्त्रता दे दी गई। ईसाई धर्म के प्रचारकों ने खुलकर हिंदू धर्म एवं इस्लाम धर्म की निंदा की। वे हिंदुओं तथा मुसलमानों के अवतारों, पैग़ंबरों एवं महापुरुषों की खुलकर निंदा करते थे तथा उन्हें कुकर्मी कहते थे। वे इन धर्मों की बुराइयों को बढ़-चढ़ाकर बताते थे तथा अपने धर्म को इन धर्मों से श्रेष्ठ बताते थे।
प्रशासनिक कारण
- ब्रिटिशों की विविध त्रुटिपूर्ण नीतियों के कारण भारत में प्रचलित संस्थाओं एवं परंपराओं का समापन होता जा रहा था। प्रशासन जनता से पृथक हो रहा था। ब्रिटिशों ने भेद-भाव पूर्ण नीति अपनाते हुए भारतीयों को प्रशासनिक सेवाओं में सम्मिलित नहीं होने दिया। लार्ड कार्नवालिस भारतीयों को उच्च सेवाओं के अयोग्य मानता था। अतः उन्होंने उच्च पदों पर भारतीयों को हटाकर ब्रिटिशों को नियुक्त किया। ब्रिटिश न्याय के क्षेत्र में स्वयं को भारतीयों से उच्च व श्रेष्ठ समझते थे। भारतीय जज किसी ब्रिटिश के विरूद्ध मुकदमे की सुनवाई नहीं कर सकते थे।
- भारत में ब्रिटिशों की सत्ता स्थापित होने के पश्चात् देश में एक शक्तिशाली ब्रिटिश अधिकारी वर्ग का उदय हुआ। यह वर्ग भारतीयों से घृणा करता था एवं उससे मिलना पसन्द नहीं करता था। ब्रिटिशों की इस नीति से भारतीय क्रुद्ध हो उठे और उनमें असन्तोष की ज्वाला धधकने लगी।
सैनिक कारण
- भारतीय सैनिक अनेक कारणों से ब्रिटिशों से रुष्ट थे। वेतन, भत्ते, पदोन्नति आदि के संबंध में उनके साथ पक्षपातपूर्ण व्यवहार किया जाता था। एक साधारण सैनिक का वेतन 7-8 रुपये मासिक होता था, जिसमें खाने तथा वर्दी का पैसा देने के बाद उनके पास एक या डेढ़ रुपया बचता था। भारतीयों के साथ ब्रिटिशों की तुलना में पक्षपात किया जाता था। जैसे भारतीय सूबेदार का वेतन 35 रुपये मासिक था, जबकि ब्रिटिश सूबेदार का वेतन 195 रुपये मासिक था। भारतीयों को सेना में उच्च पदों पर नियुक्त नहीं किया जाता था। उच्च पदों पर केवल ब्रिटिश ही नियुक्त होते थे। डॉ. आर. सी. मजूमदार ने भारतीय सैनिकों के रोष के तीन कारण बतलाए हैं –
- बंगाल की सेना में अवध के अनेक सैनिक थे। अतः जब 1856 ई. में अवध को ब्रिटिश साम्राज्य में लिया गया, तो उनमें असंतोष उत्पन्न हुआ।
- ब्रिटिशों ने सिक्ख सैनिकों को बाल कटाने के आदेश दिए तथा ऐसा न करने वालों को सेना से बाहर निकाल दिया।
- ब्रिटिश सरकार द्वारा ईसाई धर्म का प्रचार करने से भी भारतीय रुष्ट थे।
तत्कालीन कारण
- 1857 तक भारत में विद्रोह का वातावरण पूरी तरह तैयार हो चूका था और अब बारूद के ढेर में आग लगाने वाली केवल एक चिंगारी की आवश्यकता थी। यह चिंगारी चर्बी वाले कारतूसों ने प्रदान की। इस समय ब्रिटेन में एनफील्ड राइफ़ल का आविष्कार हुआ। इन राइफ़लों के कारतूसों को गाय एवं सुअर की चर्बी द्वारा चिकना बनाया जाता था। सैनिकों को मुँह से इसकी टोपी को काटना पड़ता था, उसके बाद ही ये कारतूस राइफ़ल में डाले जाते थे।इन चर्बी लगे कारतूसों ने विद्रोह को भड़का दिया।
1857 की क्रांति की शुरुआत
1857 ki kranti upsc notes : 1857 की क्रांति का सूत्रपात मेरठ छावनी के स्वतंत्रता प्रेमी सैनिक मंगल पाण्डे ने किया। 29 मार्च, 1857 को नए कारतूसों के प्रयोग के विरुद्ध मंगल पाण्डे ने आवाज उठायी। ध्यातव्य है कि अंग्रेजी सरकार ने भारतीय सेना के उपयोग के लिए जिन नए कारतूसों को उपलब्ध कराया था, उनमें सूअर और गाय की चर्बी का प्रयोग किया गया था। छावनी के भीतर मंगल पाण्डे को पकड़ने के लिए जो अंग्रेज अधिकारी आगे बढ़े, उसे मौत के घाट उतार दिया। 8 अप्रैल, 1857 को मंगल पाण्डे को फांसी की सजा दी गई। उसे दी गई फांसी की सजा की खबर सुनकर सम्पूर्ण देश में क्रांति का माहौल स्थापित हो गया।
मेरठ के सैनिकों ने 10 मई, 1857 को जेलखानों को तोड़ना, भारतीय सैनिकों को मुक्त करना और अंग्रेजों को मारना शुरू कर दिया। मेरठ में मिली सफलता से उत्साहित सैनिक दिल्ली की ओर बढ़े। दिल्ली आकर क्रांतिकारी सैनिकों ने कर्नल रिप्ले की हत्या कर दी और दिल्ली पर अपना अधिकार जमा लिया। इसी समय अलीगढ़, इटावा, आजमगढ़, गोरखपुर, बुलंदशहर आदि में भी स्वतंत्रता की घोषणा की जा चुकी थी।
विद्रोह के प्रमुख केंद्र और केंद्र के प्रमुख नेता
दिल्ली – जनरल बख्त खान
कानपुर – नाना साहब
लखनऊ – बेगम हज़रत महल
बरेली – खान बहादुर
बिहार – कुंवर सिंह
फैज़ाबाद – मौलवी अहमदउल्ला
झांसी – रानी लक्ष्मी बाई
इलाहाबाद – लियाकत अली
ग्वालियर – तात्या टोपे
गोरखपुर – गजाधर सिंह
विद्रोह के समय प्रमुख अंग्रेज जनरल
दिल्ली – लेफ्टिनेंट विलोबी ,निकोलसन , हडसन
कानपुर – सर ह्यू व्हीलर ,कॉलिन कैम्पबेल
लखनऊ- हेनरी लॉरेंस , हेनरी हैवलॉक , जेम्स आउट्रम , सर कोलिन कैम्पबेल
झांसी – सर ह्यू रोज
बनारस – कर्नल जेम्स नील
1857 की क्रांति का दमन
- क्रांति के राष्ट्रव्यापी स्वरूप और भारतीयों में अंग्रेजी सरकार के प्रति बढ़ते आक्रोश सरकार ने निर्ममता पूर्ण दमन की नीति अपनायी। तत्कालीन वायसराय लॉर्ड कैनिंग ने बाहर से अंग्रेजी सेनाएं मंगवायीं। जनरल नील के नेतृत्व वाली सेना ने बनारस और इलाहाबाद में क्रांति को जिस प्रकार से कुचला, वह पूर्णतः अमानवीय था। निर्दोषों को भी फांसी की सजा दी गई। दिल्ली में बहादुरशाह को गिरफ्तार कर लेने के बाद नरसंहार शुरू हो गया था। फुलवर, अम्बाला आदि में निर्ममता के साथ लोगों की हत्या करवायी । सैनिक नियमों का उल्लंघन कर कैदी सिपाहियों में से अनेकों को तोप के मुँह पर लगाकर उड़ा दिया गया। पंजाब में सिपाहियों को घेरकर जिन्दा जला दिया गया।
- अंग्रेजों ने केवल अपनी सैन्य शक्ति के सहारे ही क्रांति का दमन नहीं किया बल्कि उन्होंने प्रलोभन देकर बहादुरशाह को गिरफ्तार करवा लिया, और उसके पुत्रों की हत्या करवादी, सिक्खों और मद्रासी सैनिकों को अपने पक्ष में कर लिया। वस्तुतः, क्रांति के दमन में सिक्ख रेजिमेण्ट ने यदि अंग्रेजी सरकार की सहायता नहीं की होती तो अंग्रेजी सरकार के लिए क्रांतिकारियों को रोक पाना टेढ़ी-खीर ही साबित होता। क्रांति के दमन में अंग्रेजों को इसलिए भी सहायता मिली कि विभिन्न क्षेत्रों में अलग-अलग समय में क्रांति ने जोर पकड़ा था।
1857 की क्रान्ति की असफलता के कारण
1857 की क्रान्ति की असफलता के प्रमुख कारण निम्नलिखित हैं-
- यह विद्रोह स्थानीय स्तर तक, असंगठित एवं सीमित था। बम्बई एवं मद्रासकी सेनायें तथा नर्मदा नदी के दक्षिण के राज्यों ने क्रान्ति के इस विद्रोह में अंग्रेज़ों का पूरा समर्थन किया।
- अच्छे साधन एवं धनाभाव के कारण भी विद्रोह असफल रहा। अंग्रेज़ी अस्त्र-शस्त्र के समक्ष भारतीय अस्त्र-शस्त्र बौने साबित हुए।
- 1857 के इस विद्रोह के प्रति ‘शिक्षित वर्ग’ पूर्ण रूप से उदासीन रहा। व्यापारियों एवं शिक्षित वर्ग ने कलकत्ता एवं बम्बई में सभाएँ कर अंग्रेज़ों की सफलता के लिए प्रार्थना भी की थी। यदि इस वर्ग ने अपने लेखों एवं भाषणों द्वारा लोगों में उत्साह का संचार किया होता, तो निःसंदेह ही क्रान्ति के इस विद्रोह का परिणाम कुछ ओर ही होता।
- इस विद्रोह में ‘राष्ट्रीय भावना’ का पूर्णतयाः अभाव था, क्योंकि भारतीय समाज के सभी वर्गों का सहयोग इस विद्रोह को नहीं मिल सका। सामन्तवादी वर्गों में एक वर्ग ने विद्रोह में सहयोग किया, परन्तु पटियाला, जीन्द, ग्वालियर एवं हैदराबाद के राजाओं ने विद्रोह को कुचलने में अंग्रेज़ों का पूरा सहयोग किया। संकट के समय लॉर्ड कैनिंग ने कहा था कि, “यदि सिन्धिया भी विद्रोह में सम्मिलित हो जाए तो मुझे कल ही भारत छोड़ना पड़ेगा”। विद्रोह दमन के पश्चात् भारतीय राजाओं को पुरस्कृत किया गया। निज़ाम को बरार का प्रान्त लौटा दिया गया और उसके ऋण माफ कर दिये गये। सिन्धिया, गायकवाड़ और राजपूत राजाओं को भी पुरस्कार मिले।
- विद्रोहियों में अनुभव, संगठन क्षमता व मिलकर कार्य करने की शक्ति की कमी थी।
- सैनिक दुर्बलता का विद्रोह की असफलता में महत्त्वपूर्ण योगदान रहा। बहादुरशाह ज़फ़र एवं नाना साहब एक कुशल संगठनकर्ता अवश्य थे, पर उनमें सैन्य नेतृत्व की क्षमता की कमी थी, जबकि अंग्रेज़ी सेना के पास लॉरेन्स बन्धु, निकोलसन, हेवलॉक, आउट्रम एवं एडवर्ड जैसे कुशल सेनानायक थे।
- क्रान्तिकारियों के पास उचित नेतृत्व का अभाव था। वृद्ध मुग़ल सम्राट बहादुरशाह ज़फ़र क्रान्तिकारियों का उस ढंग से नेतृत्व नहीं कर सका, जिस तरह के नेतृत्व की तत्कालीन परिस्थितियों में आवश्यकता थी।
- विद्रोही क्रान्तिकारियों के पास ठोस लक्ष्य एवं स्पष्ट योजना का अभाव था। उन्हें अगले क्षण क्या करना होगा और क्या नहीं, यह भी निश्चित नहीं था। वे मात्र भावावेश एवं परिस्थितिवश आगे बढ़े जा रहे थे।
- आवागमन एवं संचार के साधनों के उपयोग से अंग्रेज़ों को विद्रोह को दबाने मे काफ़ी सहायता मिली। इस प्रकार आवागमन एवं संचार के साधनों ने भी इस विद्रोह को असफल करने में सहयोग दिया।
1857 की क्रान्ति के परिणाम
1857 की इस महान् क्रान्ति के विद्रोह के दूरगामी परिणाम रहे, जो निम्नलिखित हैं-
- विद्रोह के समाप्त होने के बाद 1858 ई. में ब्रिटिश संसद ने एक क़ानून पारित कर ईस्ट इंडिया कम्पनी के अस्तित्व को समाप्त कर दिया, और अब भारत पर शासन का पूरा अधिकार महारानी विक्टोरिया के हाथों में आ गया। इंग्लैण्ड में 1858 ई. के अधिनियम के तहत एक ‘भारतीय राज्य सचिव’ की व्यवस्था की गयी, जिसकी सहायता के लिए 15 सदस्यों की एक ‘मंत्रणा परिषद्’ बनाई गयी। इन 15 सदस्यों में 8 की नियुक्ति सरकार द्वारा करने तथा 7 की ‘कोर्ट ऑफ़ डायरेक्टर्स’ द्वारा चुनने की व्यवस्था की गई।
- स्थानीय लोगों को उनके गौरव एवं अधिकारों को पुनः वापस करने की बात कही गई। भारतीय नरेशों को महारानी विक्टोरिया ने अपनी ओर से समस्त संधियों के पालन करने का आश्वासन दिया, लेकिन साथ ही नरेशों से भी उसी प्रकार के पालन की आशा की। अपने राज्य क्षेत्र के विस्तार की अनिच्छा की अभिव्यक्ति के साथ-साथ उन्होंने अपने राज्य क्षेत्र अथवा अधिकारों का अतिक्रमण सहन न करने तथा दूसरों पर अतिक्रमण न करने की बात कही, और साथ ही धार्मिक शोषण खत्म करने एवं सेवाओं में बिना भेदभाव के नियुक्ति की बात की गयी।
- सैन्य पुनर्गठन के आधार पर यूरोपीय सैनिकों की संख्या को बढ़ाया गया। उच्च सैनिक पदों पर भारतीयों की नियुक्ति को बंद कर दिया गया। तोपखाने पर पूर्णरूप से अंग्रेज़ी सेना का अधिकार हो गया। अब बंगाल प्रेसीडेन्सी के लिए सेना में भारतीय और अंग्रेज़ सैनिकों का अनुपात 2:1 का हो गया, जबकि मद्रास और बम्बई प्रेसीडेंसियों में यह अनुपात 3:1 का हो गया। उच्च जाति के लोगों में से सैनिकों की भर्ती बन्द कर दी गयी।
- 1858 के अधिनियम के अन्तर्गत ही भारत में गवर्नर-जनरल के पदनाम में परिवर्तन कर उसे ‘वायसराय’ का पदनाम दिया गया।
- क्रान्ति के विद्रोह के फलस्वरूप सामन्तवादी ढाँचा चरमरा गया। आम भारतीयों में सामंतवादियों की छवि गद्दारों की हो गई, क्योंकि इस वर्ग ने विद्रोह को दबाने में अंग्रेज़ों को सहयोग दिया था।
- विद्रोह के परिणामस्वरूप भारतीयों में राष्ट्रीय एकता की भावना का विकास हुआ और हिन्दू-मुस्लिम एकता ने ज़ोर पकड़ना शुरू किया, जिसका कालान्तर में राष्ट्रीय आंदोलन में महत्त्वपूर्ण योगदान रहा।
- 1857 की क्रान्ति के बाद साम्राज्य विस्तार की नीति का तो ख़ात्मा हो गया, परन्तु इसके स्थान पर अब आर्थिक शोषण के युग का आरम्भ हुआ।
- भारतीयों के प्रशासन में प्रतिनिधित्व के क्षेत्र में अल्प प्रयास के अन्तर्गत 1861 ई. में ‘भारतीय परिषद् अधिनियम’ को पारित किया गया।
- इसके अतिरिक्त ईसाई धर्म के प्रचार-प्रसार में कमी, श्वेत जाति की उच्चता के सिद्धान्त का प्रतिपादन और मुग़ल साम्राज्य के अस्तित्व का ख़त्म होना आदि 1857 के विद्रोह के अन्य परिणाम थे।
प्रश्न – प्लासी का युद्ध किस वर्ष हुआ था?
- 1764
- 1761
- 1757
- 1857
Key Points
- प्लासी का युद्ध भारत के इतिहास में एक महत्वपूर्ण घटना थी और इसने उपमहाद्वीप पर ब्रिटिश वर्चस्व की स्थापना में एक महत्वपूर्ण मोड़ का प्रतीक है।
- यह निर्णायक युद्ध 23 जून 1757 को वर्तमान पश्चिम बंगाल में स्थित प्लासी के मैदानों में, कलकत्ता (अब कोलकाता) से लगभग 150 किलोमीटर उत्तर में भागीरथी नदी के तट पर हुआ था।
- यह युद्ध ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी की सेनाओं के बीच लड़ा गया था, जिसका नेतृत्व रॉबर्ट क्लाइव ने किया था, और बंगाल के नवाब, सिराजुद्दौला, और उनके फ्रांसीसी सहयोगियों के साथ।
- संघर्ष का प्राथमिक कारण ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी और सिराजुद्दौला के बीच बढ़ता तनाव था। नवाब कंपनी के बढ़ते प्रभाव और बंगाल के राजनीतिक और आर्थिक मामलों में उसके हस्तक्षेप से तेजी से चिंतित हो गया था।
- सिराजुद्दौला ने कंपनी द्वारा बिना उसकी अनुमति के कलकत्ता के किलेबंदी, करों से बचने और उसके राजनीतिक विरोधियों को शरण देने पर आपत्ति जताई थी।
- जून 1756 में, कंपनी के कार्यों से नाराज होकर, सिराजुद्दौला ने कलकत्ता में फोर्ट विलियम पर हमला किया और उसे अपने कब्जे में ले लिया। कुख्यात “कलकत्ता का काला गड्ढा” घटना, जहाँ कई ब्रिटिश कैदियों की एक छोटे से कालकोठरी में मौत हो गई थी, ने दोनों पक्षों के बीच तनाव को और बढ़ा दिया।
प्रश्न – प्लासी के युद्ध के बाद भारत के लिए शाश्वत दुःख की काली रात का आरंभ हुआ – यह किस बंगला कवि का कथन है?
- नवीन चन्द्र सेन
- बंकिम चन्द्र चटर्जी
- रवीन्द्रनाथ टैगोर
- काजी नजरुल इस्लाम
- बंगाली कवि नवीनचन्द्र सेन ने प्लासी के युद्ध के परिणाम को एक स्थायी दुखभरी रात कहा था।
- जबकि सर यदुनाथ सरकार ने कहा कि प्लासी की हार से मंदगामी तथा अविदित यशस्वी उषा काल का उदय हुआ, जैसा विश्व के किसी अन्य स्थान पर नहीं देखा गया है, वास्तव में पुनर्जागरण था। वस्तुत: यह कथन अंग्रेजों की चाटुकारिता थी।
- नवीन चन्द्र सेन ने यह कथन कहा कि ‘प्लासी के युद्ध के बाद भारत के लिए शाश्वत दु:ख की काली रात का आरंभ हुआ’।
- प्लासी का युद्ध 23 जून 1757 ई. को लॉर्ड क्लाइव और सिराजुद्दौला के बीच लड़ा गया। वर्तमान में प्लासी बंगाल के नारिया जिले मे हुगली नदी के बाएँ तट पर स्थित है।
- प्लासी युद्ध के समय मुगल बादशाह आलमगीर द्वितीय था। अंग्रजो ने ‘फूट डालो और राज करो’ नीति का पहली बार प्रयोग यहीं पर किया।
- सर यदुनाथ सरकार ने प्लासी के युद्ध के विषय में कहा कि “23 जून 1757 ई. में भारत के मध्य कालीन युग का अन्त हो गया और आधुनिक युग का शुभारम्भ हो गया”
- मेल्सन ने प्लासी के युद्ध के विश्व में कहा कि “इतना तात्कालिक स्थायी और प्रभावशाली परिणामों वाला कोई युद्ध नहीं हुआ, इस युद्ध में विजय ने बंगाल में अंग्रेजी साम्राज्य की नींव डाल दी।”
- इतिहासकार के. एस. पणिक्कर के अनुसार “प्लासी सौदा था जिसमें बंगाल के धनी लोगों और मीरजाफर ने नवाब को अंग्रेजों को बेच दिया।”
प्रश्न – 1757 ई. में, _______ ने प्लासी में सिराजुद्दौला के विरुद्ध कंपनी की सेना का नेतृत्व किया था।
- लॉर्ड कार्नवालिस
- लॉर्ड मिंटो
- वारेन हेस्टिंग्स
- रॉबर्ट क्लाइव
Key Points
- रॉबर्ट क्लाइव के नेतृत्व में ईस्ट इंडिया कंपनी की सेना ने प्लासी के युद्ध में सिराज-उद-दौला को शामिल किया था।
- सिराज-उद-दौला बंगाल के नवाब थे।
- EIC अधिकारियों द्वारा व्यापार विशेषाधिकारों के व्यापक दुरुपयोग से सिराज नाराज थे।
- 1757 में प्लासी का युद्ध EIC के सिराज-उद-दौला के खिलाफ लगातार गलत कार्य करने के कारण हुआ था।
- कलकत्ता से लगभग 160 किलोमीटर उत्तर में, प्लासी (पलाशी) की छोटी बस्ती के करीब, भागीरथी-हुगली नदी के तट पर सेनाएं एक साथ आ गईं थीं।
- 23 जून, 1757 को प्लासी का युद्ध लड़ा गया था।
- रॉबर्ट क्लाइव की 3,000 सैनिकों की सेना ने सिराज-उद-सेना दौला के 50,000 योद्धाओं, 40 तोपों और 10 युद्ध हाथियों को नष्ट कर दिया था।
- 11 घंटे में युद्ध खत्म हो गया और सिराज-उद-दौला हारकर भाग गए थे।
Additional Information
- प्लासी का युद्ध 23 जून, 1757 को उत्तर-पूर्वी भारत में लड़ा गया था।
- रॉबर्ट क्लाइव के नेतृत्व में ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी की टुकड़ियों ने बंगाल के अंतिम नवाब सिराजुद्दौला और उनके फ्रांसीसी सहयोगियों की सेना के खिलाफ मोर्चा खोल दिया था।
- क्लाइव की जीत ने अंततः अंग्रेजों को भारत में सबसे बड़ी आर्थिक और सैन्य शक्ति बना दिया।
- प्लासी के युद्ध का राजनीतिक महत्व था क्योंकि इसने भारत में ब्रिटिश साम्राज्य की नींव रखी; इसे भारत में ब्रिटिश शासन का प्रारंभिक बिंदु माना गया है।
- प्लासी के युद्ध के परिणाम-
- इस विजय के फलस्वरूप मीर जाफर बंगाल के नवाब बने थे। उन्होंने अंग्रेजों को बड़ी रकम और 24 परगना की जमींदारी दी थी।
- अंग्रेजी प्रतिद्वंद्वियों, फ्रांसीसी को बाहर कर दिया गया था।
प्रश्न – ब्रिटिश शासन के दौरान भारतीयों के लिए निम्नलिखित में से किसे व्यापक रूप से ‘स्वर्ग से प्राप्त सेवा’ माना जाता था?
- बर्मा मोर्चे पर सैन्य सेवा
- भारतीय न्यायिक सेवा
- ब्रिटिश भारतीय सेना
- भारतीय सिविल सेवा या ICS
Key Points
- भारतीय सिविल सेवा (ICS) को व्यापक रूप से ‘स्वर्ग से प्राप्त सेवा’ माना जाता था।
- शुरू में केवल यूरोपीय लोगों को ही अनुमति थी लेकिन बाद में भारतीयों को भी शामिल होने की अनुमति दी गई।
- उन्होंने विभिन्न क्षमताओं में सेवा की, जिसमें जिला आयुक्त, कर संग्रहकर्ता और न्यायाधीश शामिल थे।
- वर्तमान समय की सिविल सेवाएँ (आईएएस, आईपीएस, आदि) आईसीएस परीक्षा की विरासत हैं।
Additional Information
- 1947 में स्वतंत्रता के बाद, ICS का नाम बदलकर भारतीय प्रशासनिक सेवा (IAS) कर दिया गया।
- यह नीतियों के कार्यान्वयन, कानून और व्यवस्था बनाए रखने, शासन के विभिन्न स्तरों (केंद्रीय, राज्य और जिला) पर परियोजनाओं के लिए जिम्मेदार है।
- अन्य महत्वपूर्ण सिविल सेवाएँ भारतीय विदेश सेवा (आईएफएस), भारतीय पुलिस सेवा (आईपीएस), भारतीय राजस्व सेवा (आईआरएस) और अन्य हैं।
प्रश्न – भारत में अंग्रेजी शिक्षा व्यवस्था का “मैग्ना कार्टा” किसे कहा जाता है ?
- मैकाले का स्मरणपत्र, 2 फरवरी, 1835
- शिक्षा पर वुड्स डिस्पैच, 1854
- हन्टर शिक्षा आयोग, 1882-83
- हार्टोग समिति, 1929
सही उत्तर विकल्प 2 है।
Key Points
- 1854 का वुड डिस्पैच, जिसे “भारत में अंग्रेजी शिक्षा का मैग्ना कार्टा” भी कहा जाता है, नियंत्रण बोर्ड के अध्यक्ष सर चार्ल्स वुड द्वारा निर्धारित एक व्यापक शैक्षिक नीति थी। इसलिए, विकल्प 2 सही है।
- इसने भारत में आधुनिक शिक्षा प्रणाली की नींव रखी।
- वुड्स डिस्पैच की मुख्य विशेषताएँ:
- प्रत्येक प्रांत में शिक्षा विभाग की स्थापना
- बॉम्बे, कलकत्ता और मद्रास में विश्वविद्यालयों का निर्माण (1857 में स्थापित)
- धर्मनिरपेक्ष और व्यावसायिक शिक्षा का प्रचार
- शिक्षक प्रशिक्षण और महिला शिक्षा पर जोर
- निजी स्कूलों के लिए अनुदान-सहायता प्रणाली शुरू की गई
- एक पदानुक्रमित संरचना की सिफारिश की गई: प्राथमिक, माध्यमिक और उच्च शिक्षा।
Additional Information
- मैकाले का मिनट (1835): शिक्षा के माध्यम के रूप में अंग्रेजी को बढ़ावा दिया लेकिन एक संरचित शैक्षिक नीति का अभाव था
- हंटर आयोग (1882-83): माध्यमिक शिक्षा और प्रांतीय जिम्मेदारियों पर केंद्रित
- हार्टोग समिति (1929): शिक्षा में गुणवत्ता और दक्षता से निपटा, विशेष रूप से प्राथमिक स्तर पर
प्रश्न – 1784 में पारित पिट्स इंडिया अधिनियम को किस अन्य नाम से जाना जाता था?
- ईस्ट इंडिया कंपनी अधिनियम
- भारत सरकार अधिनियम
- चार्टर अधिनियम
- रोलेट अधिनियम
सही उत्तर ईस्ट इंडिया कंपनी अधिनियम है।
Key Points
- 1784 का पिट्स इंडिया अधिनियम ईस्ट इंडिया कंपनी अधिनियम के रूप में भी जाना जाता है।
- इसे ब्रिटिश प्रधान मंत्री विलियम पिट द यंगर द्वारा प्रस्तुत किया गया था।
- यह अधिनियम पहले के 1773 के रेगुलेटिंग अधिनियम की कमियों और सीमाओं को दूर करने के लिए बनाया गया था।
- इसने नियंत्रण की दोहरी प्रणाली स्थापित की जहाँ ब्रिटिश सरकार और ईस्ट इंडिया कंपनी ने भारत में प्रशासनिक उत्तरदायित्वों को साझा किया।
- इस अधिनियम ने कंपनी के नागरिक, सैन्य और राजस्व मामलों की देखरेख के लिए नियंत्रण बोर्ड बनाया।
Additional Information
- 1773 का रेगुलेटिंग अधिनियम
- यह भारत में ईस्ट इंडिया कंपनी के मामलों को विनियमित करने के लिए ब्रिटिश संसद द्वारा किया गया पहला प्रयास था।
- इसने भारत में अन्य ब्रिटिश क्षेत्रों पर पर्यवेक्षी अधिकार वाले बंगाल के गवर्नर-जनरल की स्थापना की थी।
- इसने फोर्ट विलियम (कोलकाता) में एक सर्वोच्च न्यायालय बनाया।
- कंपनी के भीतर भ्रष्टाचार और अक्षमता को दूर करने में यह अधिनियम अपर्याप्त समझा गया।
- 1813 का चार्टर अधिनियम
- इसने कंपनी के चार्टर का नवीनीकरण किया लेकिन भारत के साथ व्यापार पर इसके एकाधिकार को समाप्त कर दिया।
- इस अधिनियम ने मिशनरियों को शिक्षा और ईसाई धर्म को बढ़ावा देने के लिए भारत आने की अनुमति दी थी।
- इसने भारतीय क्षेत्रों में शिक्षा को बढ़ावा देने के लिए 1 लाख रुपये की राशि प्रदान की थी।
- भारत सरकार अधिनियम 1858
- इसने भारत का नियंत्रण ईस्ट इंडिया कंपनी से ब्रिटिश क्राउन को हस्तांतरित कर दिया।
- इसने भारत के राज्य सचिव का पद स्थापित किया।
- इस अधिनियम ने भारत में प्रत्यक्ष ब्रिटिश शासन की शुरुआत को चिह्नित किया।
- 1919 का रोलेट अधिनियम
- इसने ब्रिटिश सरकार को बिना मुकदमे के आतंकवाद के संदेह में किसी भी व्यक्ति को कैद करने की अनुमति दी थी।
- इससे व्यापक विरोध हुआ और यह जलियांवाला बाग नरसंहार के कारणों में से एक था।
प्रश्न – ब्रिटिश भारत के निम्नलिखित में से किस अधिनियम के तहत ब्रिटिश सरकार ने भारत के प्रशासन का प्रत्यक्ष नियंत्रण अपने हाथों में ले लिया?
- बंगाल विनियमन अधिनियम 1818
- भारतीय अनुबंध अधिनियम 1872
- चार्टर अधिनियम 1813
- भारत सरकार अधिनियम 1858
Key Points
- भारत सरकार अधिनियम 1858 वह कानून था जिसने भारत में ईस्ट इंडिया कंपनी के शासन का अंत किया और भारत का नियंत्रण ब्रिटिश क्राउन को स्थानांतरित कर दिया।
- यह अधिनियम 1857 के भारतीय विद्रोह के जवाब में बनाया गया था, जिसने कंपनी के प्रशासन की कमजोरियों और अपर्याप्तताओं को उजागर किया।
- इस अधिनियम के तहत, ब्रिटिश सरकार ने भारत के लिए राज्य सचिव का पद स्थापित किया, जिसे भारतीय प्रशासन पर पूर्ण अधिकार और नियंत्रण दिया गया।
- इस अधिनियम ने भारत के लिए राज्य सचिव की सहायता के लिए भारत परिषद के निर्माण का भी नेतृत्व किया।
- इस परिवर्तन ने ब्रिटिश राज के रूप में जाने जाने वाले काल की शुरुआत को चिह्नित किया, जो 1947 में भारत की स्वतंत्रता तक चला।
Additional Information
- भारत सरकार अधिनियम 1858 से पहले, ईस्ट इंडिया कंपनी भारत में शासक संस्था थी, जिसने 1757 में प्लासी की लड़ाई के बाद महत्वपूर्ण नियंत्रण प्राप्त कर लिया था।
- इस अधिनियम को भारत के बेहतर शासन के लिए अधिनियम के रूप में भी जाना जाता था और इसे 2 अगस्त, 1858 को पारित किया गया था।
- इसने भारत के वायसराय के पद की स्थापना की, जो भारत के गवर्नर-जनरल द्वारा धारण किया गया था, जो ब्रिटिश क्राउन के प्रतिनिधि के रूप में कार्य करता था।
- इस अधिनियम का उद्देश्य ब्रिटिश संसद के तहत अधिक प्रत्यक्ष और जवाबदेह प्रशासन सुनिश्चित करके भारत के शासन में सुधार करना था।
- इस अधिनियम द्वारा स्थापित प्रशासनिक ढांचा भारत सरकार अधिनियम 1935 के पारित होने तक काफी हद तक अपरिवर्तित रहा, जिसने प्रांतीय स्वायत्तता और संघीय ढांचे की शुरुआत की।
Key Points
- रानी विक्टोरिया को 1877 में ‘भारत की महारानी’ की उपाधि प्रदान की गई थी।
- यह उपाधि रॉयल टाइटल्स अधिनियम 1876 का हिस्सा थी, जिसे ब्रिटिश संसद द्वारा पारित किया गया था।
- भारत की महारानी के रूप में रानी विक्टोरिया की घोषणा 1877 के दिल्ली दरबार के दौरान हुई थी।
- यह उपाधि ब्रिटिश राजशाही को भारतीय साम्राज्य से जोड़ने और भारत पर ब्रिटिश अधिकार को दर्शाने के लिए बनाई गई थी।
Additional Information
- दिल्ली दरबार
- दिल्ली दरबार दिल्ली में आयोजित एक भव्य सभा थी जो भारत के सम्राट या महारानी के रूप में ब्रिटिश शासकों की घोषणा को चिह्नित करती थी।
- पहला दिल्ली दरबार 1877 में रानी विक्टोरिया को भारत की महारानी घोषित करने के लिए आयोजित किया गया था।
- बाद के दरबार क्रमशः राजा एडवर्ड सप्तम और राजा जॉर्ज पंचम के राज्याभिषेक को चिह्नित करने के लिए 1903 और 1911 में आयोजित किए गए थे।
- रॉयल टाइटल्स अधिनियम 1876
- यह अधिनियम रानी विक्टोरिया को भारत की महारानी की उपाधि ग्रहण करने की अनुमति देने के लिए ब्रिटिश संसद द्वारा अधिनियमित किया गया था।
- यह भारत पर अपने साम्राज्यवादी नियंत्रण को मजबूत करने की ब्रिटिश रणनीति का हिस्सा था।
- रानी विक्टोरिया
- वह 1837 से 1901 तक यूनाइटेड किंगडम की शासक थीं।
- उनका शासनकाल, जिसे विक्टोरियन युग के रूप में जाना जाता है, यूनाइटेड किंगडम के भीतर औद्योगिक, सांस्कृतिक, राजनीतिक और वैज्ञानिक परिवर्तन द्वारा चिह्नित किया गया था।
- वह 1877 में भारत की महारानी बनीं, एक उपाधि जो उन्होंने 1901 में अपनी मृत्यु तक धारण की।
- ब्रिटिश राज
- ब्रिटिश राज 1858 से 1947 तक भारतीय उपमहाद्वीप पर ब्रिटिश शासन की अवधि को संदर्भित करता है।
- यह 1857 के भारतीय विद्रोह के बाद ईस्ट इंडिया कंपनी के शासन की समाप्ति के बाद शुरू हुआ।
- ब्रिटिश राज में प्रत्यक्ष ब्रिटिश शासन के साथ-साथ रियासतों पर निगरानी भी शामिल थी ।
प्रश्न – उस एकमात्र विदेशी शक्ति का नाम बताएँ जिसने सन् 1857 के विद्रोह को दबाने हेतु अंग्रेजों को सक्रिय रूप से सहयोग दिया।
- भूटान
- श्रीलंका
- नेपाल
- बर्मा
सही उत्तर नेपाल है।
Key Points
- 1857 के विद्रोह के दौरान नेपाल ने ब्रिटिशों को सक्रिय सैन्य सहायता प्रदान की थी।
- नेपाल के प्रधानमंत्री, जंग बहादुर राणा ने ब्रिटिशों की सहायता के लिए सैनिक भेजे थे।
- नेपाली सेना ने विद्रोहियों से प्रमुख क्षेत्रों को पुनः प्राप्त करने में मदद की थी।
- नेपाल की भागीदारी ब्रिटिशों के साथ अच्छे संबंध बनाए रखने और अपनी स्थिति को सुरक्षित करने की इच्छा से प्रेरित थी।
Additional Information
- 1857 का विद्रोह:
- भारतीय स्वतंत्रता का प्रथम युद्ध के रूप में भी जाना जाता है।
- यह ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी के शासन के खिलाफ एक बड़ा, लेकिन अंततः असफल विद्रोह था।
- 10 मई, 1857 को मेरठ शहर में शुरू हुआ था।
- जंग बहादुर राणा:
- 1846 से 1877 तक नेपाल के प्रधानमंत्री थे।
- नेपाल के राणा वंश के संस्थापक थे।
- नेपाल के आधुनिकीकरण और ब्रिटिश साम्राज्य के साथ मजबूत संबंध स्थापित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।
- ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी:
- पूर्व और दक्षिण पूर्व एशिया और भारत के साथ व्यापार के शोषण के लिए गठित एक अंग्रेजी कंपनी थी।
- राजनीति में शामिल थी और भारत में ब्रिटिश साम्राज्यवाद के एक एजेंट के रूप में कार्य करती थी।
- भारत में इसकी गतिविधियों के कारण उपमहाद्वीप में ब्रिटिश प्रभाव का विस्तार हुआ।
- विद्रोह का प्रभाव:
- भारत में ईस्ट इंडिया कंपनी के शासन के अंत का कारण बना।
- भारत पर ब्रिटिश क्राउन द्वारा प्रत्यक्ष शासन की शुरुआत को चिह्नित किया।
- भारत के प्रति ब्रिटिश नीतियों में महत्वपूर्ण परिवर्तन किए, जिसमें सैन्य, प्रशासनिक और वित्तीय सुधार शामिल थे।
प्रश्न – 1857 के विद्रोह को दिल्ली में कुचलने वाले निम्नलिखित में से कौन ब्रिटिश जनरल थे?
- सर कॉलिन कैंपबेल
- जॉन निकोलसन
- जनरल ह्यूग रोज़
- हेनरी लॉरेंस
सही उत्तर जॉन निकोलसन है।
Key Points
- जॉन निकोलसन एक ब्रिटिश सेना अधिकारी थे जिन्होंने 1857 के विद्रोह को दिल्ली में कुचलने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी।
- वे विद्रोहियों के विरुद्ध हमले का नेतृत्व करने में एक प्रमुख व्यक्ति थे और उन्हें उनके साहस और सैन्य नेतृत्व के लिए याद किया जाता है।
- निकोलसन विद्रोहियों से दिल्ली को फिर से जीतने में महत्वपूर्ण थे, जो विद्रोह को कुचलने में एक महत्वपूर्ण मोड़ था।
- दिल्ली पर हमले के दौरान वे घायल हो गए थे और कुछ समय बाद उनकी मृत्यु हो गई, लेकिन उनके कार्यों का विद्रोह के परिणाम पर स्थायी प्रभाव पड़ा।
Additional Information
- 1857 का विद्रोह:
- भारतीय स्वतंत्रता के प्रथम युद्ध के रूप में भी जाना जाता है, यह भारत में ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी के शासन के खिलाफ एक बड़ा विद्रोह था।
- यह 10 मई 1857 को मेरठ के छावनी शहर में कंपनी की सेना के सिपाहियों के विद्रोह के रूप में आरम्भ हुआ।
- यह विद्रोह दिल्ली, कानपुर, लखनऊ और झांसी सहित विभिन्न क्षेत्रों में फैल गया।
- विद्रोह के कारण:
- कई कारकों ने विद्रोह में योगदान दिया, जिसमें ब्रिटिश नीतियों से असंतोष, आर्थिक शोषण और सामाजिक और धार्मिक शिकायतें सम्मिलित हैं।
- नई राइफल कारतूसों की शुरुआत, जिनके बारे में अफवाह थी कि वे गाय और सूअर की चर्बी से सने हुए हैं, ने हिंदू और मुस्लिम सैनिकों के बीच व्यापक नाराजगी उत्पन्न की थी।
- मुख्य व्यक्ति:
- विद्रोह के अन्य उल्लेखनीय नेताओं में झांसी की रानी लक्ष्मीबाई, तात्या टोपे, बहादुर शाह द्वितीय और नाना साहब शामिल थे।
- जनरल ह्यूग रोज़, सर कॉलिन कैंपबेल जैसे ब्रिटिश कमांडरों ने विद्रोह को कुचलने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।
- परिणाम:
- विद्रोह को अंततः ब्रिटिशों ने कुचल दिया, जिससे ईस्ट इंडिया कंपनी का शासन समाप्त हो गया और ब्रिटिश क्राउन द्वारा भारत का प्रत्यक्ष नियंत्रण स्थापित हुआ।
- इसने भारतीय इतिहास में एक महत्वपूर्ण मोड़ का प्रतीक किया और भविष्य के स्वतंत्रता आंदोलनों के लिए बीज बोया।
